पृष्ठ:दासबोध.pdf/९६

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परमार्थ-स्तुति। तपस्वी, तीयवासी, मनस्वी, अर्थात् मन स्वाधीन रखनेवाले. महायोगी, जनन्त्री, अर्थात् जनों के समान, लोगों के अनुसार, चलनेवाले पुरुप, सिद्ध, साधु, साधक, मंत्रयंत्रशोधक, एकनिष्ठ उपासक, गुणग्राही, संत, खजन, विद्वजन, वेदश, शास्त्रज्ञ, महाजन, बुद्ध, सर्वज्ञ. विमल समाधान- ‘कर्ता, योगी, व्युत्पन्न, ऋपीश्वर, धूर्त, तार्किक, कवीश्वर, मनोजय करने- वाले मुनीश्वर, दिग्बल्की, अर्थात् दिशाही हैं वल्कल जिनके, ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी. तत्वज्ञानी, पिंडवानी, योगाभ्यासी, योगनानी, उदासीन, पंडित, पौराणिक, विद्वान्, वैदिक, भट्ट, पाठक, यजुर्वेदी, उत्तम महाश्रोत्रिय, याक्षिक, अग्निहोत्री, वैद्य, पंचाक्षरी, परोपकारी, त्रिकालज्ञ, बहुश्रुत, निरभिमान, निरपेज्ञ, शान्तिशील, क्षमाशील, दयाशील, पवित्र, सत्यशील, अन्तशुद्ध, ज्ञानशील, इत्यादि, ईश्वरी पुरुष, जिनमें नित्यानित्य का विवेक है, जहां सभानायक हैं। ऐसी सभा की अलौकिक महिमा कैसे वर्णन की जाय?॥७-२० ॥ जहां परमार्थी जन-समुदाय के द्वारा कथा-श्रवण का उपाय होता रहता है वहां लोगों का उद्धार सहज ही होता है ॥ २२ ॥ जहां पर सत्य, धैर्य, श्रादि उत्तम गुणों से युक्त सतोगुणी लोग रहते हैं यहां लदा सुख ही भरा रहता है ॥ २२ ॥ विद्यासम्पन्न, कलावेत्ता, विशिष्टगुणयुक्त सजन और भगवान् के प्रीतिपात्र जहां पर एक- त्रित है ॥ २३ ॥ प्रवृत्त, निवृत्त. प्रपंची, परमार्थी, गृहस्थाश्रमी, वानप्रस्य, संन्यासी, श्रादि, बाल, वृद्ध, तरुण, पुरुप, स्त्री, श्रादि सब, जहां पर अन्तः- करण में परमात्मा का अखंड ध्यान करते हैं ॥ २४-२५ ॥ जो परमे- श्वर के भक्त हैं, जिनके द्वारा सब को समाधान प्राप्त होता है, उन्हें मेरा अभिवंदन है ॥ २६ ॥ ऐसी ही सभा को, जहां नित्य-निरंतर भगवान् का गुण-कीर्तन हुआ करता है, मैं नमस्कार करता हूं ॥ २७ ॥ जहां देवतुल्य सजन रहते हैं वहां रहने से सद्गति मिलती । यह वात महात्मा लोगों ने अनेक ग्रन्यों में लिखी है ॥ २८ ॥ कलियुग में परमात्मा का गुण-कीर्तन मुख्य है, जहां यह होता है वही सभा श्रेष्ठ है । परमात्मा की कथा सुनने से अनेक बुरे सन्देह दूर होते हैं ॥ २६ ॥ नववाँ समास-परमार्थ-स्तुति । ॥ श्रीराम ॥ अब इस परमार्थ का स्तवन करता हूं, जो साधकों का मुख्य स्वार्थ है। परमार्थ-योग सब से बड़ा है। ॥१॥ यह है तो परम सुगम; पर