पृष्ठ:दासबोध.pdf/९७

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दासबोध। [ दशक १ उन मनुष्यों के लिए दुर्गम हो गया है जिनको सत्समागम का सर्म (रहस्य) नहीं मालूम है ॥ २॥ अनेक साधनों का फल उधार है; (काला- न्तर से फलप्राप्ति होती है) परन्तु यह परमार्थ प्रत्यक्ष ब्रह्मसाक्षात्कार ही है । इससे वेद-शास्त्र का सार, अनुभव में आता है ॥ ३ ॥ (यह ब्रह्मरूपी परमार्थ) है तो चारों ओर; परन्तु अणुमात्र भी नहीं देख पड़ता । लोग सन्यासी हो जाते हैं, पर एकदेशीयता के कारण परमार्थ नहीं पाते ॥ ४॥ आकाशमार्ग में जो गुप्तपन्य है वह समर्थ योगीही जानते हैं, औरों को यह गुह्यार्थ सहसा नहीं मालूम होता ॥ ५॥ वह (परमार्थ या परब्रह्म) सार का भी मुख्य सार है, वह अखंड, अक्षय और अपार है; कुछ भी करें, तो भी चोर उसे नहीं चुरा सकते ॥६॥ उसे राजसय अथवा अग्निभय नहीं है । स्वापदभय, अर्थात् बनैले जन्तुओं के भय की तो वहां बातही न करो ॥७॥ परब्रह्म हिलता नहीं, ठौर भी नहीं छोड़ता, कालान्तर में भी नहीं डिगता, जहां का वहां ही रहता है ॥ ८॥ ऐसी वह सुख्य धरोहर है, बहुत समय बीत जाने पर भीन कभी वह बदलती है और न.कम ज्यादा होती है ॥६॥ अथवा वह न घिसता है और न अदृश्य होता है। गुरुशंजन के विना देखने से वह देख भी नहीं पड़ता है ॥ १० ॥ पहले जो समर्थ योगी हो गये उनका भी यही मुख्य स्वार्थ है । यह परम गुह्य है; इसी लिए परमार्थ कहलाता है ॥ ११ ॥ जिसने ढूंढ कर देखा है उसीको यह अर्थ (पर- भार्थ) मिला है । औरों को, मौजूद रहने पर भी, जन्मजन्मान्तर के लिए अलभ्य हो गया है ॥ १२ ॥ इस परमार्थ की अपूर्वता तो देखो, कि जिसके तई जन्ममृत्यु की बातही नहीं है और जिसके द्वारा सायुज्यता की पदवी तुरन्तही मिल जाती है ॥ १३ ॥ परमार्थ के विवेक से माया दूर होजाती है, सारासार विचार मालूम होता है और अन्तःकरण में परब्रह्म का ज्ञान हो जाता है ॥१४॥ जहां उस सर्वव्यापक परमात्मा का ज्ञान हो गया और उसी में इस ब्रह्मांड का भी (ज्ञान से) लय हो गया वहां पंचसूतों का यह खेल तुच्छ मालूम होने लगता है ॥ १५ ॥ ज्योंही परमात्मा का विवेक अन्तःकरण में आ गया त्याही प्रपंच मिथ्या मालूम होने लगता है और माया धोखे की टट्टी जान पड़ने लगती है ॥१६॥ अन्तःकरण में ब्रह्मास्थिति के समातेही सन्देह ब्रह्मांड के बाहर चला जाता है और दृश्य पदार्थ जीर्ण जर्जर होकर बद- रंग देख पड़ते हैं ॥ १७ ॥ ऐसा यह परमार्थ है । जो इसे करता है उसका यह मुख्य स्वार्थ है। .