पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११९

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बम में उसके रूबरू, क्यों न खमोश बैठिये उसकी तो ख़ामुशी में भी, है यही मुद्दा कि यों मैंने कहा कि, बम-ए-नाज़ चाहिये और से, तिही सुन के सितम ज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया, कि यों मुझसे कहा जो यार ने, जाते हैं होश किस तरह देख के मेरी बेख़ुदी, चलने लगी हवा, कि यों कब मुझे कू-ए-यार, में रहने की वज्अ याद थी पाइनःदार बन गई, हैरत-ए-नक्श-ए-पा, कि यों गर तिरे दिल में होखयाल, वस्ल में शोक का जवाल मौज मुहीत-ए-अाब में, मारे है दस्त-ओ-पा, कि यों जो यह कहे, कि रेख़्तः क्योंकि हो रश्क-ए-फ़ारसी गुफ्तः-ए-ग़ालिब एक बार पढ़के उसे सुना, कि यों हसद से दिल अगर अफ़सुर्दः है, गर्म-ए-तमाशा हो कि चश्म-ए-तँग, शायद, कसरत-ए-नज़ारः से वा हो बकद्र-ए-हसरत-ए-दिल, चाहिये जौक़-ए-मासी भी भरूँ यक गोशः-ए-दामन, गर अाब-ए-हफ़्त दरिया हो