सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़्लत ही सही

'अम्र हरचन्द कि है बर्क़ ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं
न सही 'अश्क, मुसीबत ही सही

कुछ तो दे, अय फ़्लक-ए-ना-इंसाफ
आह-ओ-फ़र्याद की रुखसत ही सही

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनियाजी तिरी 'आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाये, असद
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही

१५०


है आर्मीदगी में निकोहिश बजा मुझे
सुब्ह-ए-वतन है खन्द:-ए-दन्दाँनुमा मुझे

ढूण्डे है उस मुग़न्नि-ए-आतश नफ़स को जी
जिसकी सदा हो जल्वः-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे