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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१८८

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देख कर दर पर्द: गर्म-ए-दामन अफ़्शानी मुझे
कर गई वाबस्तः-ए-तन मेरी ‘अरियानी मुझे

बन गया तेग़-ए-निगाह-ए-यार का सँग-ए-फ़साँ
मरहबा मैं, क्या मुबारक है गिराँ जानी मुझे

क्यों न हो बेइल्तिफ़ाती, उस की ख़ातिर जम्‘अ है
जानता है मह्व-ए-पुरसिशहा-ए-पिन्हानी मुझे

मेरे ग़म ख़ाने की क़िस्मत जब रक़म होने लगी
लिख दिया मिंजुमलः-ए-अस्बाब-ए-वीरानी, मुझे

बदगुमाँ होता है वह काफ़िर, न होता, काशके
इस क़दर जौक़-ए-नवा-ए-मुर्ग-ए-बुस्तानी मुझे

वाय, वाँ भी शोर-ए-मह्शर ने न दम लेने दिया
ले गया था गोर में, जौक़-ए-तन आसानी मुझे

वा‘दः आने का वफ़ा कीजे, यह क्या अन्दाज़ है
तुम ने क्यों सौंपी है, मेरे घर की दरबानी, मुझे

हाँ नशात-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी, वाह, वाह
फिर हुआ है ताज़ः सौदा-ए-ग़जल ख्वानी मुझे