पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५३

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ताज़: नहीं है नश्शः-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न मुझे तिरयाकि-ए-क़दीम हूँ दूद - ए - चरारा का से बार बन्द-ए-'अिश्क से आजाद हम हुये पर क्या करें, कि दिल ही 'अदू है फ़राग़ का बेखून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह गुबार यह मैकदः ख़राब है, मै के सुराग़ का बारा-ए-शिगुफ्तः तेरा, बिसात-ए-निशात-ए-दिल अब-ए-बहार, खुमकद: किसके दिमाग़ का वह मिरी चीन-ए-जबीं से, राम-ए- पिन्हाँ समझा राज-ए-मक्तूब ब बेरब्ति - ए- 'शुन्वाँ समझा यक अलिफ़ बेश नहीं, सैक़ल-ए-आईनः हनोज़ चाक करता हूँ मैं, जब से कि गरीबाँ समझा शह-ए-अस्बाब-ए-गिरफ्तारि-ए-खातिर, मत पूछ इस क़दर तंग हुअा दिल, कि मैं ज़िन्दाँ समझा बदगुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम रुख प हर क़तरः 'अरक, दीद:-ए-हैराँ समझा