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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५३

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ताज़: नहीं है नश्शः-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न मुझे
तिरयाकि-ए-क़दीम हूँ दूद-ए-चराग़ का

से बार बन्द-ए-'अिश्क़ से आज़ाद हम हुये
पर क्या करें, कि दिल ही 'अदू है फ़राग़ का

बेख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार
यह मैकदः ख़राब है, मै के सुराग़ का

बाग़-ए-शिगुफ़्त: तेरा, बिसात-ए-निशात-ए-दिल
अब्र-ए-बहार, ख़ुमकद: किसके दिमाग़ का

३५



वह मिरी चीन-ए-जबीं से, ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
राज-ए-मक्तूब ब बेरब्ति-ए-'अन्वाँ समझा

यक अलिफ़ बेश नहीं, सैक़ल-ए-आईनः हनोज़
चाक करता हूँ मैं, जब से कि गरीबाँ समझा

शर्ह-ए-अस्बाब-ए-गिरफ्तारि-ए-खातिर, मत पूछ
इस क़दर तंग हुआ दिल, कि मैं ज़िन्दाँ समझा

बदगुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम
रुख प हर क़तरः 'अरक, दीद:-ए-हैराँ समझा