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असफल शिक्षा


माननीय चार्लस ग्रैन्ट जिनके विचारों को हम उद्धृत कर आये हैं, 'अपनी प्रजा को, प्रेम से, अपना धर्म सिखाकर, अपनी रुचि प्रदान कर और अपना भाव उत्पन्न कर अपना लेना चाहते थे, उनकी समझ में ('इसी उपाय से अपना शासन स्थायी और सुरक्षित रह सकता है)'।

शिक्षा-सम्बन्धी नीति की आड़ में जब ये स्वार्थ काम कर रहे थे तब संस्कृत के बड़े विद्वान् एच॰ एच॰ विलसन का निम्न-लिखित विरोध करना व्यर्थ ही था:—

"मैं कुछ दिनों से कलकत्ता के समाचारपत्रों में यह चर्चा जोरों से छिड़ी देख रहा हूँ कि जो बातें अब तक उचित और यथार्थ समझी जाती थीं उनका त्याग कर दिया जाय और भारतवर्ष की नई या पुरानी सब भाषाओं को नष्ट कर देने के लिए अँगरेज़ी को प्रत्येक प्रोत्साहन दिया जाय और पूर्व के सब देशों में उसका व्यापक प्रचार किया जाय। जब तक ये बाते समाचारपत्रों तक ही परिमित थीं तब तक उनसे कोई हानि नहीं थी, बल्कि विनोद ही होता था। पर ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तब हो गई जब देशी भाषाओं का अन्त करने के लिए देशी लिपि को दबाने का काम गम्भीरतापूर्वक आरम्भ हो गया और पूर्वीय ग्रन्थ ऐसी लिपि में छापे गये जिसे यहां के निवासी पढ़ नहीं सकते।"

इन उद्धरणों से इस बात में ज़रा भी सन्देह नहीं रह जाता कि भारत में शिक्षा सम्बन्धी ब्रिटिश-नीति की रचना करनेवालों के हृदयों में क्या स्वार्थ काम कर रहा था। प्रचलित शिक्षण-पद्धतियों का विरोध उन्होंने केवल राजनैतिक स्वार्थ से प्रेरित होकर किया था। उन्होंने जिस नवीन पद्धति की रचना की थी वह भारतवासियों की मानसिक या आर्थिक उन्नति के लिए न थी वरन् शासन के कार्य्यों को केवल सुगम करने के लिए थी। बम्बई के गवर्नर सर जोन मालकम ने १८२८ ई॰ में अपने एक संक्षिप्त विवरण में लिखा था:—

"भारतवासियों में शिक्षा-प्रचार करने का एक मुख्य उद्देश्य यह है कि शासन के प्रत्येक विभाग में उनकी सहायता से हमारी शक्ति बहुत बढ़ सकती है। मितव्ययिता, उन्नति और स्व-रक्षा की दृष्टि से मैं इसे आवश्यक समझता हूं।