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दुखी भारत

"हमारे शासन के विभिन्न भागों में योरपीय कर्म्मचारियों को जो वेतन मिल रहा है उसमें कमी करके व्यय कम करना मैं नहीं पसन्द कर सकता पर उन बहुत से कामों पर जो वे इस समय कर रहे हैं, कम वेतन पर भारतीयों को लगा कर व्यय कम किया जा सकता है।"

"अल्प वेतन पर भारतीयों से काम लेना ही इस नवीन शिक्षण-पद्धति का एक मात्र लक्ष्य था। १८५४ का डाकपत्र लिखनेवालों के हृदय में भी यही भाव था जब उन्होंने लिखा कि:—

"हमारी सदैव यह सम्मति रही है कि भारत में शिक्षा-प्रचार से हमारे शासन के सब विभागों की त्रुटियाँ दूर हो जा सकती हैं, क्योंकि उस दशा में आप प्रत्येक विभाग में चतुर और विश्वासपात्र भारतीयों को नौकर रख सकते हैं और दूसरी ओर हमारा यह भी विश्वास है कि भिन्न भिन्न प्रकार की अनेक नौकरियों जिनके लिए उम्मेदवारों की अकसर जरूरत पड़ा करेगी शिक्षा-प्रचार में बड़ी सहायक होंगी।"

सर जोन मैलकम ने अपने संक्षिप्त विवरण में, जिससे कि अभी हम उद्धरण दे चुके हैं, एक स्थान पर लिखा था:—

"बम्बई के अतिरिक्त अन्यत्र अँगरेजी स्कूल न स्थापित होने के कारण, लेखको और मुनीमों का वेतन बहुत बढ़ा हुआ है और जब ये लोग प्रान्त से बाहर जाते हैं तब और भी अधिक वेतन चाहते हैं। और जब वे विशेष योग्य होते हैं तो अपनी परिमित संख्या के कारण मनमाना वेतन लेते हैं। इस प्रकार के लोग हमारे शासन-सम्बन्धी प्रत्येक विभाग में बेतुकी मांगों की प्रवृत्ति पैदा करते हैं। आगे मैं इस दोष के उपायों के सम्बन्ध में कहूँगा परन्तु मूल्य घटाने का वास्तविक उपाय तो यही है कि विक्रय वस्तु अधिक उत्पन्न की जाय। सूरत और पूना में अँगरेजी स्कूलों की स्थापना होनी चाहिए या जो हों उन्हें प्रोत्साहन मिलना चाहिए।

ब्रिटिश शासकों का लक्ष्य ऐसे ही लोगों के उत्पन्न करने का था जो यह कहें कि—'मुझे नौकरी दो या मृत्यु'। शिक्षा-सम्बन्धी जिस यन्त्र का उन्होंने निर्माण किया वह इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्वथा उपयुक्त था।