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शिक्षा और द्रव्योपार्जन


विश्वविद्यालय की लागत का एक विश्वविद्यालय बनवा सकते हैं। उन्होंने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की वह पश्चिम में एक बड़ी प्रसिद्ध संस्था है। परन्तु वह मानव समाज की कृज्ञता का जो दावा करती है वह उसकी आर्थिक लागत का दावा है। औसत दर्जे का अमरीकावासी केवल दव्योपार्जन्न में दिलचस्पी रखता है या उपार्जन के पश्चात् उसके व्यय करने में।

शिक्षा के ही लिए शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। यह उपदेश प्रायः हमें ऊँचे दर्जे के मनुष्यों से मिलता है। उन्हें यह जानना चाहिए कि यहाँ इस विषय पर विचार करना असङ्गतः न होगा। पर मैं इस पुस्तक पर इस विषय के अधिक उद्धरण लादने से डरता हूँ। मैं पाठकों के विनोद के लिए यहाँ अपनी ही पुस्तक[१] 'भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या' से एक उद्धरण दूंगा। मिस मेयो ने अपनी पुस्तक में भी इससे प्रायः उद्धरण दिये हैं। उसके बारहवें अध्याय में मैंने 'शिक्षा के आर्थिक मूल्य' पर विचार किया था। उसमें मैंने संयुक्त राज्य अमरीका की 'एज्युकेशन ब्यूरो' के १९१७ में प्रकाशित 'शिक्षा का आर्थिक मूल्य' नामक २२ नम्बर के पर्चे से बहुत उद्धरण दिये थे। उस पर्चे के अवतरणों का परिचय देते हुए मैंने अपनी पुस्तक में लिखा था:—

"सम्पन्न राष्ट्रीय शिक्षण-पद्धति की सबसे प्रथम आवश्यकता यह है कि वह प्रत्येक नागरिक को इस योग्य बना दे कि वह स्वयं भलीभांति जीवन व्यतीत करे तथा दूसरों को वैसाही जीवन व्यतीत करने में सहायता दे। भली भांति जीवन व्यतीत करने के लिए एक नियत मात्रा में भोजन, वस्त्र, निवास, छुट्टी, विनोद, और ऊँचे दर्जे की सुरुचि तथा महान् श्राकांक्षाओं की पूर्ति के साधनों की आवश्यकता पड़ती है। जो राष्ट्र अपने प्रत्येक सदस्य को भली भांति जीवन व्यतीत करने के पर्याप्त साधन नहीं जुटाता वह शेष संसार पर केवल भाररूप होता है। परन्तु जब ३१ करोड़ मानवों का राष्ट्र जो भारत के समान पूर्ण हो, भारत के समान उर्वरा भूमि का अधिकारी हो और जिसके पास सब प्रकार की प्राकृतिक उपजों का बाहुल्य हो, अपनी जन-संख्या


  1. भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या। जार्ज एलेन एण्ड यूनियन, लन्दन, १९२०