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दुखी भारत


तार के विरुद्ध हरकारा; छापाखाना, समाचार-पत्र और पुस्तकालय के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति की आवाज; विद्युत् प्रकाश के विरुद्ध, जलती हुई पतली लकड़ी; बैङ्क, चेक-बुक, रेल की सड़के और सरकारी विभागों के भाण्डार के विरुद्ध बैलगाड़ी पर लादकर चमड़ा और घास बेचना; फौलादी अट्टालिका के विरुद्ध लट्ठों की झोपड़ी, सूक्ष्मदर्शक यंत्र और दूरबीन के विरुद्ध असहाय आँखें, रसायन, अस्पताल, और आधुनिक चिकित्सक तथा जर्राह के विरुद्ध झाड़-फूक और जादू। एक पूरी पीड़ी को समस्त शिक्षाओं से वञ्चित कर दीजिए बस वह फिर मामूली लकड़ी के हल, बैलगाड़ी और ऐसे ही प्रारम्भिक साधनों की ओर लौट जायगी क्योंकि फौलाद के हथियार, वाष्प-यन्त्र के जहाज़, बिजली, टेलीफोन, तार, पानी के नल, लोहे की इमारतें, खान खोदना, रसायन, कारखाने, आधुनिक नगर-स्वच्छता, स्वास्थ्य-विज्ञान और चिकित्सा, पुस्तकें, समाचार-पत्र, कचहरियाँ, और कानून जो सम्पत्ति की रक्षा करते हैं और निर्बलों के अधिकार सुरक्षित रखते हैं, आदि सब बातें शिक्षा के बिना असम्भव हैं और केवल उतनी ही मात्रा में सफल हो सकती हैं जितनी मात्रा में उनमें शिक्षित बुद्धि का प्रयोग होगा।[१]"

अमरीकन राष्ट्र की भांति अपनी शिक्षण-पद्धति का आर्थिक मूल्य प्रदर्शित करने के बजाय भारत-सरकार के उच्च पदाधिकारी लोग भारतीयों की, शिक्षा को आर्थिक दृष्टि से देखने की, प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हैं। अहा, एक राष्ट्रीय शासन-प्रणाली और बाहर से आये स्वार्थसाधकों के विदेशी शासन में कितना अन्तर है!

मिस मेयो अपनी पुस्तक के १८४ पृष्ठ पर मेरी 'राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या' नामक पुस्तक के एक उद्धरण की समालोचना करती हुई लिखती है:—

"१९२३-२४ में शिक्षा पर भारत के सार्वजनिक चन्दे का कुल व्यय जिसमें म्युनिसिपल बोर्ड, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, प्रान्तीय सरकार, और केन्द्रीय सरकार की सहायता भी सम्मिलित है, १९.९ करोड़ रुपया या १,३८,२०,००० पौंड तक पहुँच गया था। जो कार्य्य करना है उसके लिए यह धन अत्यन्त न्यून है। फिर भी यदि इस व्यय का ब्रिटिश-भारत के कुल कर के साथ


  1. डाक्टर ए॰ केसवेल एलिस। उसी पुस्तक से।