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दुखी भारत

मंत्रियों के लिए सबसे बड़ी असुविधा द्रव्य प्राप्त करना है। यह बात फिर स्पष्ट हो जाती है जब श्रीयुत ऋची कहते हैं कि[१]

"आर्थिक सहायता की असमानता का प्रान्तों की शिक्षण-नीति पर बड़ा घोर प्रभाव पड़ता है। बम्बई-प्रान्त अपनी विशाल और बढ़ती हुई करों की आय से आरम्भिक शिक्षा को शीघ्र और सर्वत्र अनिवार्य कर सकता है पर बङ्गाल के लिए अपनी परिमित और असमर्थ साधनों के कारण ऐसी किसी आयोजना पर विचार करना बूते से बाहर की बात है। सुसङ्गठित शिक्षण-पद्धति का आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक उन्नति पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि इस प्रकार की प्रान्तीय असमानताओं का अन्तिम प्रभाव कठिनता से अनुमान किया जा सकता है।"

मिस्टर फिशर के व्याख्यानों से लिये गये उद्धरणों पर विचार करते हुए मैंने अपनी पुस्तक में लिखा था[२]:—

इँगलेंड के साथ हमारा राजनैतिक सम्बन्ध होने के कारण मिस्टर फिशर के शब्दों का जो महत्त्व हमारे लिए हो सकता है वह उतने ही बड़े दूसरे देश के विद्वानों के शब्दों का नहीं हो सकता। यहाँ साम्राज्य के शिक्षा-विभाग के सर्वोच्च अधिकारी ने ऐसे सिद्धान्तों और सच्ची बातों को खोल कर रख दिया है जो उनकी समझ में समस्त आत्म-सम्मान चाहनेवाली और उन्नति की आकांक्षा रखनेवाली जातियों के लिए लागू हो सकते हैं। भारतवर्ष में हम भारतीय अपनी शिक्षण-नीति को निश्चित करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। प्रान्तों को शिक्षा-सम्बन्धी स्वतंत्रता का वादा किये जाने पर भी अन्तिम शब्द तो केन्द्रीय सरकार के ही हाथ में रहेगा। भारतवर्ष में सार्वजनिक शिक्षा की उन्नति अभी बहुत समय तक ब्रिटिश कर्मचारियों की सहानुभूति की आश्रित रहेगी, क्योंकि नीति-सञ्चालन का और राज्य कोष से व्यय करने का अधिकार उन्हीं को है।"

ये शब्द आज भी उतने ही सत्य हैं जितने १९१८ में थे। संसार की भिन्न भिन्न सभ्य जातियों की शिक्षण-पद्धति का अध्ययन करके मैंने अपनी


  1. भारत में शिक्षावृद्धि-सम्बन्धी प्रति पाँच वर्ष में प्रकाशित होने वाली पत्रिका, भाग १, संख्या ८, पैराग्राफ़ २०
  2. भारत में राष्ट्रीय शिक्षा, पृष्ठ १०४ और आगे।