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दुखी भारत

कदाचित् अध्यापिकाओं के अल्प-संख्यक होने का वास्तविक और प्रबल कारण यह है कि भारतवर्ष में आजन्म-कुमारियां नहीं होती[१]

इसमें सन्देह नहीं कि ग्रेट ब्रिटेन और अन्य योरपीय देशों में स्त्री-पुरुषों के जीवन में जो सम्बन्ध है उससे कतिपय जटिल समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। परन्तु इससे एक यह लाभ भी है कि यह अध्यापिकाओं की भी सृष्टि करता है जो बहुत से लोकोपयोगी कार्य करती हैं। भारतवर्ष में स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि वह आजन्म-कुमारी अध्यापिकाओं की सेना उत्पन्न कर सके। कितने ही योरपीय देशों में विवाहिता अध्यापिकाएं बहुत कम मिलती हैं। हमें यह मालूम हुआ है कि गत महायुद्ध के बाद से ग्रेट ब्रिटेन के शिक्षा विभाग के अधिकारी विवाहिता अध्यापिकाओं के मार्ग में बड़ी अड़चने उपस्थित कर रहे हैं।

पूर्वी आसाम और बङ्गाल की पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट से एक प्रमाण उद्घृत कर मिस मेयो लिखती है कि 'ईसाई और ब्रह्मसमाजी स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी अच्छे पद पर पहुँची स्त्री को अध्यापन कार्य्य की शिक्षा प्राप्त करने के लिए राज़ी करना अत्यन्त कठिन है। और जो अध्यापन-कार्य्य में योग्यता का प्रमाण-पत्र प्राप्त भी कर लेती हैं......उनमें से अधिकांश जहाँ उनकी आवश्यकता होती है वहाँ जाना अस्वीकार कर देती हैं।'

माना, परन्तु जब गाँवों की आरम्भिक पाठशालाओं में इतना कम वेतन मिलता है तब अच्छे पदों पर पहुँची स्त्रियाँ दूर के गाँवों में जाने के लिए कैसे राज़ी की जा सकती हैं? शिक्षा-सम्बन्धी आठवें पञ्चवार्षिक विवरण में (जो १९१७ से १९२२ तक के लिए है) मिस्टर ऋची लिखते हैं[२] कि 'निःसन्देह अधिकांश प्रान्तों में वेतन बढ़ जाने से अध्यापकों की दशा में


  1. "यह कहना अधिक सुविधाजनक है कि १७ या १८ वर्ष की आयु के पश्चात् वेश्या और रोगिणी जैसी अन्धी या कोढ़िन को छोड़ कर और कोई स्त्री अविवाहिता नहीं रह सकती। बीस वर्ष से ऊपर आयु की अविवाहिताओं की संख्या बहुत ही कम होती है। और आजन्म कुमारी का मिल जाना तो बड़ी ही आश्चर्यजनक घटना होगी।" भारतीय सेंसस रिपोर्ट १९११ भाग १५ (संयुक्त प्रान्त के सम्बन्ध में) पृष्ठ २२९
  2. पैराग्राफ २०२ और उसके आगे।