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पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/१३

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विषय-प्रवेश

स्वतन्त्रता को अपने कब्ज़े में रखने के लिए शेष संसार की नैतिक-स्वीकृति प्राप्त करना। गोरी जातियों के प्रभुता की यही आदि बाइबिल है। यही मनोभाव है जो साम्राज्यवादियों को उत्तेजित करता है। यही सामग्री है जिससे पराधीन जातियों को हाथ में रखने के लिए और स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए महत्वाकांक्षा और उद्योग करके, 'जो वे अपने आप अपनी हानि कर रहे हैं' उस से उन्हें बचाने के लिए 'लोहे के पिंजड़े' तैयार किये जाते हैं। इसी उपाय से ब्रिटेन ने भारतवर्ष में अपना राज्य स्थापित किया। इसी उपाय से अमरीका के संयुक्त राज्य ने फ़िलीपाइन द्वीपों पर अधिकार कर लिया और अब हटने से इनकार करता है।

यह सच है कि कभी कभी साम्राज्य स्थापित करने का काम आत्म-विस्मृति की दशा में आत्मरक्षा या व्यापार की सामयिक आवश्यकताओं को लेकर आरम्भ होता है किन्तु शीघ्र, बहुत शीघ्र वह दुराग्रह और अधर्मपूर्वक साम्राज्यस्थापन का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार जो साम्राज्य कायम होते हैं और बनाये जाते हैं उनको और बढ़ाया जाता है, उन पर अधिकार रखा जाता है और उनका प्रबन्ध किया जाता है। तो भी कभी कभी जो साम्राज्य धूर्तता से स्थापित किये जाते हैं और बल से वश में रखे जाते हैं उनके सामने एक विकट समस्या यह खड़ी हो जाती है कि उनके अधीन जातियों में राजनैतिक चेतनता जाग्रत हो उठती है। राजनैतिक प्रधानता आर्थिक लूट-खसोट की ओर ले जाती है। आर्थिक लूट-खसोट से नाना प्रकार के रोग और व्याधियों की उत्पत्ति होती है। यहाँ तक कि पृथ्वी पर की सबसे सीधी जातियाँ भी हिंसात्मक या अहिंसात्मक विद्रोह करने के लिए विवश हो उठती हैं और उनमें स्वतन्त्रता की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। शासक इसे बुरा मानते हैं। पहले वे स्वतन्त्र होने के इस जोश को हँसी उड़ाकर, घृणा दिखाकर या बिल्कुल उपेक्षा करके समूल नष्ट करना चाहते हैं। उसके बाद हुकूमत का दर्जा आता है। दबाव की नीति बर्ती जाती है या मीठी बातों से उन्हें अपने वश में रखने का उद्योग किया जाता है इन बातों में केवल मक्कारी, धोखेबाज़ी और ज़बानी जमाख़र्च रहता है। इसी तरह झगड़ा जारी रहता है। साम्राज्य-विस्तार के पण्डित लोग