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आठवाँ अध्याय
हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाय तो वर्तमान वर्णाश्रम-धर्म मध्य-कालीन युग का अवशिष्टांश-मात्र प्रतीत होगा। प्राचीन भारत में वर्णाश्रम-धर्म कदापि इतना कठोर और संकुचित नहीं था। बौद्धकाल और उसके पश्चात् के समय में जातियों और उपजातियों की बहुत वृद्धि हुई और उनके नियम क्रमशः और भी कठोर होते गये। आरम्भ में केवल चार वर्ण थे। उसके पश्चात् उद्योग-धन्धों के अनुसार अनेक जातियों का निर्माण हुआ। ये जातियाँ मध्यकालीन इँगलेंड के उन व्यापार-संघों से मिलती जुलती थीं जिनका उद्देश परस्पर एक दूसरे की सहायता और रक्षा करना होता था और जिन्हें ट्रेड गिल्ड्स कहते थे। इन्हीं संस्थाओं के आधार पर इँगलेंड के आधुनिक दार्शनिकों ने, जो गिल्ड सोसलिस्ट्स के नाम से विख्यात हैं, अपने विचारों का प्रचार किया है। इस दल के श्रीयुत पेन्टी जैसे नेता प्राचीन 'आनन्दमय इँगलेंड' के सामाजिक जीवन को पुनः वापस लाना चाहते हैं और उसे 'व्यापारयुग के पश्चात् का काल' कहते हैं।

भारतीय जातियों के निर्माण में वर्ण, व्यापार आदि भिन्न भिन्न बातों ने वास्तव में कहाँ तक और क्या योग दिया इस विषय में विद्वानों का मतभेद है। पञ्जाब के सेंसर कमिश्नर और उसके पश्चात् लेफ्टिनेंट गवर्नर सर डेन्ज़िल इबस्टन ने अपनी सेंसर रिपोर्ट[१] में इस विषय की विस्तृत मीमांसा की है। उनके विचार में जाति-निर्माण के विभिन्न कारण ये थे—कुल-सम्बन्धी विभिन्नतायें जो कि सभी आरम्भिक समाजों में समान रूप से पाई जाती थीं; व्यापार-सम्बन्धी विभिन्नतायें जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाती थीं और 'जो मध्यकालीन युग की सब जातियों में पाई जाती थीं'


  1. पञ्जाब की जातियाँ (इबस्टन की सेंसर रिपोट से संग्रहीत) गवर्नमेंट प्रेस, लाहौर से १९१६ में प्रकाशित पृष्ठ ९ और आगे।