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दुखी भारत

पुरोहितों और राजपूतों की प्रधानता और हिन्दू-धर्म-शास्त्र के उन कृत्रिम नियमों द्वारा इस सिद्धान्त का समर्थन, जो विवाहों और अन्तर्जातीय विवाहों का निश्चय करते हैं, कुछ व्यापारों और खाद्य पदार्थों को अपवित्र बताते हैं, और विभिन्न जातियों के सामाजिक सम्बन्ध की सीमा बाँधते हैं। इबस्टन साहब कहते हैं कि 'यदि इन बातों में सामाजिक और कुल-सम्बन्धी उच्चता का गर्व भी जोड़ दीजिए जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है और जो गार्हस्थिक दृष्टिकोण से दुःखद और आर्थिक दृष्टिकोण से भाररूप होते हुए भी जातियों को सङ्कुचित बनाने के लिए यथेष्ट है तो भारतवर्ष में जातियों ने जो कठोरता धारण कर ली है उस पर आश्चर्य करने का कोई कारण न रह जायगा।'

परन्तु मिस्टर नेस्फील्ड का, जिन्होंने आगरा और अवध के सेंसस कमिश्नर की हैसियत से उस प्रश्न पर विचार किया है, यह मत है कि वर्ण-व्यवस्था एक-मात्र विभिन्न पेशों पर निर्भर है। वे लिखते हैं—कार्य्य, केवल कार्य्य की नींव पर भारतवर्ष की सम्पूर्ण वर्णव्यवस्था की रचना हुई थी[१]। उनके मत में 'प्रत्येक जाति या जातियों का समूह सभ्यता की क्रमोन्नतिप्राप्त उन श्रेणियों में से किसी न किसी की द्योतक है जिन्होंने, मनुष्य की प्रौद्योगिक उन्नति केवल भारतवर्ष में ही नहीं किन्तु संसार के प्रत्येक देश में जहाँ आरम्भिक वन्य जीवन से सभ्य जीवन की कलाओं और उद्योगों की और कुछ उन्नति हुई है, अङ्कित की है। किसी जाति का उच्च या निम्न पद इस बात पर निर्भर है कि वह जाति जो व्यवसाय करती है वह सभ्यता की किस श्रेणी का है; उच्च या निम्न?

सेंसस के कर्मचारियों को छोड़ कर अब हम इतिहासकारों की ओर चलते हैं। भारतीय इतिहासवेत्ता फ़्रांसीसी मिस्टर एम॰ सिनर्ट[२] को हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था में केवल रोम और यूनान की सामाजिक समानता दिखाई


  1. नेस्फील्ड-रचित 'उत्तर-पश्चिम प्रान्त और अवध की वर्णव्यवस्था का संक्षिप्त परिचय' जिसे सर हरबर्ट रिसले ने अपनी पुस्तक 'भारतवर्ष की जातियाँ' (द्वितीय संस्करण कलकत्ता, १९१५) में २६५ और आगे के पृष्ठों पर उद्धृत किया।
  2. रिसले द्वारा उद्धृत, वही पुस्तक पृष्ठ २६७ और आगे।