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हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

पड़ती है। रिसले के अनुसार एम॰ सिनर्ट का इस सम्बन्ध में यह मत है कि 'भारतवर्ष में प्राचीन आर्यों को जिन परिस्थितियों के संघर्ष में आना पड़ा और उनको अपने अनुकूल बनाने के लिए उन्होंने जो व्यवस्था की वही वर्ण-व्यवस्था है।' मिस्टर सिनर्ट अधिकांश में उस समानता पर विश्वास करते हैं जो हिन्दुओं और आरम्भिक यूनानियों तथा रोमन लोगों के सामाजिक संगठन में पाई जाती है। वे 'रोम के जेन्स क्यूरिया, यूनान के फ्रत्रिया, फुली, और भारतवर्ष के गोत्र इन तीनों प्रकार की मानव जातियों में अत्यन्त निकट की समानता बतलाते हैं।' वे 'प्राचीन साहित्य के आधार पर यह दिखलाना चाहते हैं कि जिन सिद्धान्तों को लेकर वर्ण-व्यवस्था की रचना हुई है वे आर्य्यों की सब शाखाओं में समानरूप से पाई जानेवाली रस्म-रिवाजों और वंशपरम्परा से चली आती हुई कथाओं में अभिन्न रूप से विद्यमान हैं। मिस्टर सिनर्ट यह भी बतलाते हैं कि यूनान के 'जेन्सेज' रोम के 'जेन्स' तथा भारत के 'गोत्रों' में इतनी आश्चर्यजनक समानता है कि यह किसी प्रकार भी नहीं कहा जा सकता कि जाति-भेद को दृष्टि में रख कर विवाह करने की प्रथा केवल भारत में ही पाई जाती है। 'प्लुटर्च' के लेखों से हमें ज्ञात होता है कि रोमन लोग अपने वंश की कन्या से कभी विवाह नहीं करते थे। और रोम की प्राचीन पुस्तकों में जिन वीराङ्गनाओं का वर्णन आया है उनमें से किसी का भी नाम उसके पति के नाम से नहीं मिलता। अपने ही कुल में विवाह करने की प्रथा का अभाव भी नहीं था। यूनान में डिमास्थनीज़ के समय में 'फ्रत्रिया' की सदस्यता उस समूह से सम्बन्ध रखनेवाले कुलों में जन्म लेनेवालों तक ही परिमित थी। रोम में प्लेबियन कुलवाले बहुत समय तक युद्ध में केवल इसी लिए लगे रहे कि पैट्रिसियन कुल की स्त्रियों के साथ उन्हें विवाह करने का अधिकार प्राप्त हो जाय। और मिस्टर सिनर्ट के मतानुसार पैट्रिसियन कुलवाले अपने ही कुल के भीतर विवाह करने की प्रथा की रक्षा में दत्त-चित्त थे, क्योंकि यूनान की भाँति रोम में भी समान कुल की स्त्रियों के साथ विवाह करना मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य समझा जाता था परन्तु फिर भी छोटे कुलों, विदेशियों और मुक्त दासों की स्त्रियों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाने की सम्भावना बनी ही