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हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

झगड़ों का फ़ैसला करते थे। और उनका वह फ़ैसला सरकार को भी स्वीकार होता था।

रिसले ने अपने लेख में सर एस॰ डिल*[१] का एक उद्धरण दिया है जिसका आशय यह है कि रोम में जितने भी सार्वजनिक सेवा के कार्य्य हो सकते थे, 'प्रायः वे सब, दरबारी के काम से लेकर कहार और पहरेदार के काम तक पूर्व की वर्ण-व्यवस्था में पाये जाते हैं।' रोमन माझी जो समुद्र में व्यापारिक जहाज़ चलाते थे, भोजन-भण्डारी जो इटलीवालों के लिए रोटियाँ तैयार करते थे, और क़साई जो मांस का व्यवसाय करते थे इन सबका जातीय संगठन उतना ही संकीर्ण और नियन्त्रित था जैसा कि भारत की जातियों में प्रचलित है.....। ये सब जातियाँ अपने वंशपरम्परा से चले आते हुए व्यवसाय को छोड़कर दूसरा काम करने की अधिकारिणी नहीं थीं। और इनमें यह विचित्र नियम था कि पुरुष अपनी जाति के भीतर ही विवाह करें। यदि कोई पुरुष जाति से बाहर किसी स्त्री के साथ विवाह करता था तो उसे अपना काम छोड़कर स्त्री के कुलवालों का पेशा स्वीकार करना पड़ता था। रोमन जातियों की कठोर संकीर्णता का अनुमान निम्नलिखित वर्णन से किया जा सकता है†[२]:—

"वे लोग जो 'ओसतिया' के सार्वजनिक भण्डारों में अफ्रीका से अनाज ले आते थे, रसोइये जो सर्व-साधारण के लिए इस अनाज की रोटी बनाते थे, कसाई जो 'समनियन' 'लुकैनिया' या 'ब्रुटियम' आदि स्थानों से सुअर लाते थे, वे लोग जो शराब और तेल का व्यवसाय करते थे और वे लोग जो सार्वजनिक स्नानगृहों का जल गरम रखने के लिए भट्ठी प्रज्वलित रखते थे, सब पृथक् पृथक् जातियों में विभक्त थे। उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी वही काम करना पड़ता था। यह ग्रामीण दासता का सिद्धान्त था जो सामाजिक कार्य्यों में लगाया गया था। इससे निकल भागने का कोई मार्ग नहीं था। पितृकुल के कार्यों के ही अनुसार नहीं वरन् मातृकुल के कार्यों के अनुसार भी मनुष्य को अपना कार्य्य स्वीकार करना पड़ता था। अपने कार्य्य-क्षेत्र के बाहर किसी


  1. * पश्चिमी साम्राज्य की अन्तिम शताब्दी में रोमन समाज की स्थिति (१८९९) रिसले की वही पुस्तक पृष्ठ २७१
  2. † रिसले द्वारा सर एस॰ डिल का उद्धरण।