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दुखी भारत

मनुष्य को विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। यदि रसोइये आदि की लड़की किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेती थी जो उसकी जाति का नहीं होता था तो उस व्यक्ति को स्व-स्त्री-कुल का पेशा ग्रहण करना पड़ता था। किसी प्रकार राजा से भी नियम भङ्ग करने की आज्ञा प्राप्त कर लेने पर या पादरी की शक्ति का भी सहयोग उपस्थित होने पर भी यह जाति-बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता था।"

आज भी वह देश कहाँ है जहाँ जाति-भेद अपना विशेष स्थान न रखता हो? योरपीय समालोचक जब हमारी आँख के तिल के लिए हमें कोसते हैं तब अपनी आँख के बेल को भूल जाते हैं। किसी दूसरे अध्याय में हम यह बताएँगे कि अगौर जातियों के प्रति गौर जातियों का क्या भाव रहता है और संयुक्त राज्य अमरीका के गोरे 'ब्राह्मण' उसके हबसी नागरिकों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। परन्तु यदि अगौर जातियों को पृथक् कर दिया जाय—यद्यपि ऐसा पृथक्करण न्याययुक्त नहीं हो सकता—तो भी क्या योरपीय समाज में धन और जन्म का अत्यन्त भारी प्रभाव नहीं पड़ता? वे जाति के स्थान पर इस प्रकार के समूहों को 'श्रेणियाँ' कहते हैं। फावड़े तो फावड़े ही रहेंगे, नाम उनका आप चाहे जो रख लें।

आधुनिक औद्योगिक समाज में जिस प्रकार 'श्रेणियों' में मनुष्य विभक्त हैं उसी प्रकार भारत में सामाजिक और औद्योगिक सङ्गठन के रूप में जातियों में विभक्त थे। केवल उत्पादन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने से उनमें रूपान्तर हो गया है। वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में न आरम्भ काल की वंश-प्रणाली काम दे सकती है और न मध्ययुग की जागीरदारी की प्रथा। भारतवर्ष की वर्णव्यवस्था ने कारीगरों में जिन कलात्मक भावों को विकसित किया वे अन्य देशों में इतने विस्तार के साथ नहीं पाये जाते। इसका मुख्य दोष यह था कि इसने समाज को स्थिर रूप दे दिया। मनुष्यों का वर्तमान श्रेणी-विभाग किसी दशा में भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। और आधुनिक विचारकों के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि क्या उपाय किया जाय कि इस श्रेणी-युद्ध से सभ्यता का नाश न हो।

इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान भारतीय वर्ण-व्यवस्था समय के अनुकूल नहीं है। युगों का कूड़ा-करकट बुहारा नहीं जा सकता, क्योंकि अपने गृह