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हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म


की व्यवस्था करने में भारत स्वतन्त्र नहीं है। परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ वर्णव्यवस्था में बराबर परिवर्तन होता रहा है। इस बात का कोई कारण नहीं है कि नई परिस्थितियों के उपस्थित होने पर इसको फिर से नया रूप न दिया जायगा? यदि वैदिक काल का कोई भारतीय उत्तर बौद्धकालीन भारत को देखता तो वह उस समय के समाज में प्रचलित नवीन और जटिल वर्णव्यवस्था को देखकर चकरा जाता। और इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं हो सकता कि राजनीति में स्वतन्त्र भारत नवीन सुधार करने में क्षणमात्र का भी विलम्ब न करेगा? जाति-भेद के वर्तमान रूप से हमें बिलकुल लाभ नहीं। इसके दोष ही कतिपय दशाओं में सामने आते हैं।

यह कहा जाता है कि हिन्दू जाति-भेद के रोग से ग्रस्त हैं। इसलिए वे प्रजातन्त्र राज्य के अयोग्य हैं यह भुला दिया जाता है कि भूतकाल में हिन्दुओं का कम से कम इतना प्रजातन्त्र राज्य अवश्य था जितना यूनान और रोम के लोगों का था। पश्चिम की जातियां पहले जापान के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहा करती थीं। बहुत समय नहीं हुआ जब उस प्रतिभावान् लेखक लैफ़केडियो हर्न ने लिखा था।[१]

"जापान में जाति-भेद भी था। उसे 'कबने' या 'सेई' कहते थे। (प्राचीन जापानी सभ्यता के सम्बन्ध में प्रमाणस्वरूप और प्रमुख लेखक डाक्टर फ्लोरेज के अनुसार मैं भी 'जाति' शब्द का प्रयोग करूँगा। वे बतलाते हैं कि 'सेई' का अर्थ वही है जो संस्कृत के 'वर्ण' शब्द का है जिससे कि 'जाति' या 'रङ्ग' का बोध होता है) जापानी समाज के तीनों बड़े विभागों में प्रत्येक कुटुम्ब का किसी न किसी जाति से सम्बन्ध होता था। और प्रत्येक जाति आरम्भ में किसी पेशा या कर्तव्य का द्योतक थी।"

जापान में ऐसे लोगों की बड़ी बड़ी जातियाँ थीं जो शब्दशः 'मनुष्य से नीचे दर्जे की' समझी जाती थीं। मिस्टर हर्न लिखते हैं:—

"सर्व-साधारण के तीनों विभागों से बाहर और उनमें सबसे निम्न विभाग से भी अत्यन्त निम्न ऐसे लोगों की बड़ी बड़ी जातियाँ थीं जो जापानी


  1. जापान का वास्तविक वर्णन, मैकमिलन क॰ पृष्ठ २६०