पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२३
हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

क्या जाति-भेद के रोग से पीड़ित जापानी 'उन्नति करने और प्रजातंत्र-राज्य स्थापित करने के योग्य थे? हर्न का कहना है:—

"जो लोग आज लिख रहे हैं कि जापानी लोगों में सङ्गठन करने की ऐसी असाधारण शक्ति है और उनमें प्रजातंत्र का ऐसा भाव है कि यह बात स्वभावतः सिद्ध है कि वे प्रतिनिधि-सत्तात्मक शासन के, पश्चिमी अर्थ में भी, सर्वथा उपयुक्त हैं, वे भ्रमवश ऊपरी दिखावे को ही वास्तविकता समझ बैठे हैं। सच बात तो यह है कि जापानियों की जातिगत सङ्गठन करने की असाधारण शक्ति ही उनके किसी आधुनिक प्रजातंत्र शासन-पद्धति के अयोग्य होने का प्रबल प्रमाण है। ऊपर से देखने से जापान के सामाजिक सङ्गठन और आधुनिक अमरीका या इंग्लैंड के उपनिवेशों के स्थानिक स्वराज्य में बहुत कम अन्तर प्रतीत होता है और हम किसी जापानी समाज के पूर्ण आत्म-संयम की प्रशंसा कर सकते हैं। परन्तु दोनों में जो वास्तविक अन्तर है वह सिद्धान्तों का अन्तर है और इतना भारी है कि केवल सहस्रों वर्षों नापा जा सकता है। अर्थात् जापान सहस्रों वर्षों में कहीं जाकर अँगरेज़ी उपनिवेश के स्थानिक स्वराज्य के योग्य हो सकता है।"

हर्न की निराशा-पूर्ण भविष्य वाणी के होते हुए भी, अब ये समस्त जाति और श्रेणी के भेद जापान से मिटाये क्योंकि इस सम्बन्ध में राजा ने प्रजा का साथ दिया और समस्त भेद-भावों का नाश करने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग किया। अपनी राजनैतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण हुई जापान इस प्रथा को मिटाने में समर्थ हुआ है। यदि भारत स्वतंत्र होता तो वह भी यही करता। भारतवर्ष में सुधारकों को बड़ी ही विपरीत दशाओं के विरुद्ध कार्य करना पड़ रहा है। क्योंकि सरकार की बिना रत्ती भर भी सहायता के उन्हें अज्ञानता और विरोधी धारणाओं से युद्ध करना पड़ता है। वास्तव में विदेशी नौकरशाही ने अपने स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से इस प्राचीन प्रथा को और भी दृढ़ बनाने के लिए नये नये उपाय खोज निकाले हैं। सेना में केवल वे ही जातियाँ भर्ती हो पाती हैं जो 'सैनिक जातियों' के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक मनुष्य योग्यता की उस परीक्षा में नहीं पास हो सकता जिसे भर्ती करनेवाला अफ़सर स्वीकार कर सके। उसे