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दुखी भारत

दो दलों में विभक्त हो जाते हैं। (१) वह जो केवल अपनी शक्ति से शासन करना चाहते हैं और बेवकूफियों में नहीं पड़ना चाहते। (२) लिबरल लोग जो संरक्षता की दलील उपस्थित करते हैं। वे अपनी जातियों को और संसार को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनके अधीन जो जातियाँ हैं वे अपने आप शासन करने में असमर्थ हैं और स्वयं उन शासितों की भलाई के लिए यह आवश्यक है कि उन पर उनकी संरक्षता बराबर जारी रहे, उसका कभी अन्त न हो। कुछ ऐसी शर्तें बना दी जाती हैं जिनके पूरी होने पर इस संरक्षता के समय की समाप्ति हो सकती है। इन शर्तों के पूरी होने में रुकावट डालने के लिए वास्तविक उपाय काम में लाये जाते हैं। इस प्रकार झूठे तर्कों का एक वृत्त रच दिया जाता है जिससे पराधीन जातियाँ और संसार दोनों को धोखा होता है। निरक्षरता, सामाजिक पवित्रता और गम्भीरता का अभाव अछूतों और दलितों की उपस्थिति, निजी और सार्वजनिक धर्माचरण का छोटा स्वरूप, हथियार बनाने, सेना संचालन करने और वैज्ञानिक रीति से रक्षा का संगठन न कर सकने की अयोग्यता आदि बातें स्वतन्त्रता न देने के पक्ष में कही जाती हैं। उधर इन सब त्रुटियों को दृढ़ बनाये रहने के लिए प्रत्येक उद्योग भी किया जाता है। पराधीन जातियों के लिए यह घोषणा कर दी जाती है कि उनमें सदाचार की कमी है जिसके बिना कोई भी जाति स्व-शासन के योग्य नहीं हो सकती या एक जाति दूसरी के साथ अच्छी तरह पेश नहीं आ सकती। शासक लोग अपने या दूसरी जातियों के घरेलू इतिहास पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते और उठते हुए राष्ट्र की इस नाम-मात्र की गिरी दशा को तिल का ताड़ बना देते हैं। और डंके की चोट पर कहते हैं कि ये जातियाँ दासता-प्रिय हो गई हैं, अपनी बेड़ियों को अलग नहीं करना चाहती, मूर्खता को ही अच्छा समझती हैं, गरीबी की पूजा करती हैं, गन्दगी तथा रोग-व्याधियों में बड़ी भक्ति रखती हैं, स्वतंत्रता से डरती हैं और जो लोग खूब अच्छी तरह जमे हुए तथा लूट-खसोट का बाना पहने हुए एकच्छत्र विदेशी शासन के विरोध का झण्डा उठाते हैं—और स्वतंत्रता की पुकार मचाते हैं, उनसे घृणा करती हैं। राजनैतिक गुलामी और आर्थिक