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दुखी भारत


'सैनिक जातियों' में से किसी एक का होना चाहिए। क्योंकि अन्य जातियों की अपेक्षा वे ही अधिक मूर्ख और 'राजभक्त' समझी जाती हैं। भूमि खरीदने का अधिकार भी जाति के ही अनुसार दिया जाता है। पञ्जाब में लैंड एलीनेशन एक्ट के लिए कुछ जातियों की एक सूची बनी है। उस सूची में जिन जातियों का नाम दर्ज है वे 'कृषि करनेवाली जातियां' समझी जाती हैं। जो लोग कई पीढ़ियों से वास्तव में कृषि-व्यवसाय नहीं करते थे, जिनका अब मुख्य उद्यम व्यापार या कारीगरी है या नौकरी है, अपनी जाति के पुछल्ले के कारण इस कानून से लाभ उठा रहे हैं। भारतीय वर्ण-व्यवस्था इस प्रकार की भद्दी बातों का कारण नहीं है। किन्तु इसका कारण केवल साम्राज्यवाद है जो असैनिक और अकृषि-व्यवसायी जातियों के विरुद्ध सैनिक और कृषि-व्यवसायी जातियां खड़ी करके और 'राजभत्तों' की एक जाति रचकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है।

जो लोग यह सोचते हैं कि ब्रिटिश सरकार और ईसाई धर्मप्रचारक भारत को जाति-भेद की बुराइयों से मुक्त कर देंगे, वे हवाई महल बना रहे हैं। नौकरशाही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जाति-भेद को केवल एक नया रूप देना चाहती है। जो लोग गम्भीर विचार नहीं करते केवल वे ही ऐसे हैं जिनका यह अनुमान है कि 'ईसाई धर्म' ने 'अछूत जातियों का उद्धार' कर दिया है। परन्तु भारतवर्ष में ईसाई धर्म इतना भी गम्भीर नहीं है जितना इस प्रकार विचार करनेवाले हैं। अपने देश की संरक्षता का आश्रित विदेशी प्रचारक अङ्कों में परिणाम दिखाने को उत्सुक रहता है पर ठोस और सुन्दर कार्य्य की ओर ध्यान नहीं देता।

भारतवर्ष में जो जाति-भेद है, वह केवल हिन्दुओं तक ही परिमित नहीं है। वंश-सम्बन्धी व्यवसायों और धन्धों का जहाँ तक सम्बन्ध है, इस पर इसलाम का भी बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। यद्यपि अस्पृश्यता के समान जातिभेद के भयङ्कर रूपों से मुसलमान बचे हैं पर उनके भी जीवन में इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। ईसाई-धर्म ने उतना भी नहीं किया जितना इसलाम ने। जैसा कि अगले अध्याय में हम देखेंगे कि जिन लोगों ने ईसाई-धर्म स्वीकार किया है उनकी जाति या अस्पृश्यता पर इस धर्म का बिलकुल प्रभाव नहीं पड़ा।