पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
नवाँ अध्याय
अछूत—उनके मित्र और शत्रु

मिस मेयो ने अपनी पुस्तक के कुछ अध्यायों में भारतवर्ष की अस्पृश्यता का वर्णन किया है। इन अध्यायों के मुख्य विषय के, कि भारतवर्ष में अस्पृश्यता है, सत्य होने में कोई सन्देह नहीं। परन्तु केवल सत्य का ही निरूपण करना तो मिस मेयो का उद्देश्य नहीं है। मिस मेयो को एक चञ्चल पत्रकार की सी शिक्षा मिली है और उसे सनसनी उत्पन्न करनेवाले काल्पनिक दृश्यों के उपस्थित करने में बड़ा मज़ा आता है। यही कारण है कि उसने तिल का ताड़ बनाया है और बहुत सी असत्य बातें गढ़ ली हैं। वास्तविकता जितने का प्रमाण दे सकती है उससे कहीं अधिक गाढ़ा रङ्ग उसने अपने चित्रों पर चढ़ाया है। इस सम्बन्ध में हमारा जो उज्ज्वल कृत्य है—सुधार आन्दोलनों के साथ शीघ्रता से बढ़ती हुई सहानुभूति और उद्धार कार्य्य आदि—उसका कहीं अणु-मात्र भी अस्तित्व नहीं मिलता। भारतीय सुधारकों को जितना मिलना चाहिए उतना भी श्रेय देने को वह कदापि तैयार नहीं। वह स्वभावतः यही सोचती है कि नीच जातियों और अछूतों का उद्धार एक-मात्र ईसाई धर्म के द्वारा हो सकता है। वह आपके दिल में यह बात जमाना चाहती है कि अछूतों का सबसे सच्चा मित्र ब्रिटिश शासक है। वही उन्हें उच्च जातियों के अत्याचार से बचाने का सदा प्रयत्न करता रहता है। अन्यत्र की भाँति यहाँ भी उसके वर्णन में कुछ सत्य है, कुछ असत्य है और सबसे भयङ्कर असत्य का वह रूप है जिसे अर्द्ध सत्य कहते हैं।

उदाहरण के लिए उसने अपनी पुस्तक के १५२ पृष्ठ पर अपना जो वक्तव्य प्रकाशित किया है उसी पर ध्यान दीजिए। वह हमें यह विश्वास दिलाना चाहती है कि जो अछूत ईसाई-धर्म ग्रहण कर लेते हैं वे 'सब जातिबन्धन से मुक्ति पा जाते हैं।' खेद है कि बात ऐसी नहीं है। मैसूर की सेंसस