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अछूत—उनके मित्र और शत्रु


रिपोर्ट[१] में मिस्टर वि॰ एन॰ नरसिंह आयङ्गर के निम्न-लिखित अनुभव मदरास प्रान्त के लिए भी उतने ही सत्य हैं जितने कि मैसूर के लिए। कुछ कम या अधिक वे समस्त भारतवर्ष के सम्बन्ध में लागू हो सकते हैं। मिस्टर आयङ्गर लिखते हैं:—

"ईसाइयों के 'रोमन कैथलिक सम्प्रदाय का मत हिन्दुनों में बड़ी शीघ्रता और सरलता के साथ प्रचलित हो सकता है क्योंकि धर्म परिवर्तन करनेवालों को स्वजातीय और सामाजिक रवाजों से, जो भारतीय समाज के बड़े प्रबल अङ्ग हैं, पृथक् करने की उसकी नीति नहीं है। जन-गणना की खोजों के मार्ग में रोमन कैथलिक ईसाइयों के कतिपय ऐसे वर्ग मिले हैं जो शान्ति के साथ अपनी इन सब रीतों और रिवाजों को मानते चले आरहे हैं जिन्हें स्वधर्म परिवर्तन से पहले मानते थे। वे अब भी विवाहों और उत्सवों के अवसर पर 'कलश' की पूजा करते हैं, ब्राह्मण ज्योतिषियों और पुरोहितों को बुलाते हैं, हिन्दू धार्मिक चिह्नों का उपयोग करते हैं और दूसरी भिन्न भिन्न आनन्दमय रिवाजों को पकड़े हुए हैं। उससे उन्हें एक बड़ी सुविधा यह है कि उनका, अपने हिन्दू स्वजातियों से, जो प्रति दिन काम पड़ता रहता है, उसमें बहुत कम अड़चनें उपस्थित होती हैं।"

भारतवर्ष की १९११ ई॰ की जन-गणना के विवरण में लिखा है कि 'साधारणतया यह कहा जा सकता है कि कैथलिक सम्प्रदाय तो जाति-विचार को सहिष्णुता से देखता है परन्तु प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय इसका विरोधी है[२]। उसी विवरण में एक कैथलिक पादरी का यह मत उद्धृत किया गया है कि 'दक्षिण भारत के ईसाई-संघों की रचना इस सिद्धान्त पर हुई है कि किसी व्यक्ति को ईसाई बनाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह व्यक्ति अपनी जाति और जातीय गुणों को त्याग दे। वे, अर्थात् ईसाई धर्म में सम्मिलित किये गये लोग, सदैव ऐसे ही रहे हैं (अर्थात् अपने स्वाभाविक और भौगोलिक अर्थ में वे सदा हिन्दू रहे हैं) और जिस जाति से मत परिवर्तन कर वे ईसाई हुए हैं, उसी जाति के अधिकार और दर्जे उन्हें प्राप्त हुए हैं। १९२१ ई॰ की जन-


  1. मैसूर की सेंसस रिपोर्ट १८९१ डुबोइस के हिन्दू मैनर्स-आक्स्फोर्ड संस्करण में उद्धृत। पृष्ठ (भूमिका)२७
  2. वही पुस्तक पृष्ठ ६०