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अछूत—उनके मित्र और शत्रु

से बढ़ा कर दिखाई है। हमें मर्दुमशुमारी के एक अफ़सर की बात मालूम है जिसने अपनी इच्छा के अनुसार क़लम की एक चाल में सहस्रों जङ्गली जातियों को, जिन्होंने अपने आपको हिन्दू बतलाया था, पशुपूजकों में सम्मिलित कर दिया। अछूतों की संख्या निश्चित करने में जिस भाव से काम लिया गया था वह भी ठीक इसी प्रकार काल्पनिक प्रतीत होता है। कदाचित् इस लीला में कोई नियम और राजनैतिक उद्देश्य भी है। भारत सरकार ने पहले पहल १९१७ ईसवी में अपनी शिक्षा-सम्बन्धी पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट में अछूतों की संख्या देने की चेष्टा की थी। उस पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट में दी गई सूची के अनुसार जिन लोगों की गणना दलित जातियों में की गई थी, उनकी संख्या ३ करोड़ १ लाख या ब्रिटिश भारत[१] की हिन्दू और जङ्गली जातियों की संख्या की १९ प्रतिशत थी।

तब से इस संख्या में बड़ी वृद्धि हुई है। और स्वयं १९२१ के विवरण में कुल संख्या ५ करोड़ २१ लाख के लगभग पहुँच गई। सम्भवतः इस अङ्क में बहुत-सी ऐसी जातियाँ सम्मिलित कर ली गई हैं जो वास्तव में अछूत हैं। बात यह है कि 'जो जाति एक स्थान पर अछूत या दलित समझी जाती है उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि दूसरे स्थान पर भी वह ऐसी ही समझी जाय।' परन्तु मर्दुमशुमारी के अफ़सर का अनुमान है कि यह संख्या ५ करोड़ ५ लाख और ६ करोड़ के बीच में होगी। यहाँ हम भी एक अनुमान कर सकते हैं। सर हेनरी शार्प की शिक्षा-सम्बन्धी रिपोर्ट में ब्रिटिश भारत की दलित जातियों की कुल संख्या ३ करोड़ १ १/२ लाख दी हुई है। इस गणना के अङ्कचक्र में आदि बाशिन्दों की संख्या लगभग १ करोड़ दी हुई है और क़ानून न माननेवाली जातियों की संख्या १/२ लाख है। तीनों क़िस्मों का पृथक् पृथक् दिखाया जाना अच्छा ही था पर यदि आपको अछूतों के लिए बृहत् संख्या की आवश्यकता हो तो इन तीनों संख्या-योगों को एक में सम्मिलित कर देने से सरल उपाय और क्या हो सकता है? इस सरल प्रयोग से आपको


  1. भारतीय मनुष्य-गणना का विवरण (१९२१) भाग १, पृष्ठ २२५