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दुखी भारत

गम्भीरता के साथ इसके सुलझाने में लगे हैं। सहस्रों—अक्षरशः सहस्रों हिन्दू इसके विरुद्ध घोर आन्दोलन कर हैं और अछूतों के लिए ऐसी ऐसी शिक्षा-सम्बन्धी और आर्थिक सुविधाओं का सङ्गठन कर रहे हैं जिन पर हमारे नागरिक व्यक्तिगत रूप से प्रतिवर्ष लाखों रुपये व्यय करते हैं। मिस मेयो का यह वक्तव्य कि 'आज भी अस्पृश्यता के अगणित पोषक हैं' सर्वथा असत्य है। और यह कहना भी ठीक नहीं है कि 'उनके (महात्मा गान्धी के) अनुयायियों में से बहुत कम ने कभी यहाँ तक उनका साथ देने की परवाह की है।' १९२६ ई॰ में हिन्दू महासभा के वार्षिक उत्सव के अवसर पर क्या हुआ इसका भी उसने अत्यन्त गलत वर्णन किया है। अछूतों से सम्बन्ध रखनेवाले प्रस्ताव पर जो 'झगड़ा' था वह 'उन लोगों के विरुद्ध जो अछूतों का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हैं' कदापि नहीं था। झगड़ा प्रस्ताव के एक अंश पर, केवल इसी एक अंश पर था कि 'अछूतों' को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार मिलना चाहिए।

समस्त शिक्षित हिन्दू इस बात को स्वीकार करते हैं कि अस्पृश्यता हिन्दू-धर्म के सुन्दर नाम में एक धब्बा है और यह अवश्य मिट जानी चाहिए। महात्मा गांधी ने मिस मेयो से यह बिलकुल ठीक कहा था कि 'विरोध होते हुए भी अस्पृश्यता मिट रही है और बड़े वेग से मिट रही है।' विरोध दिनों दिन निर्बल पड़ रहा है और अस्पृश्यता-निवारण का आन्दोलन बड़ी शीघ्रता के साथ सफलता की ओर जा रहा है।