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चाण्डाल से भी बदतर

जस्टिस रफिन ने संक्षेप रूप से अपनी सम्मति निम्न लिखित शब्दों में व्यक्त की है:—

"उद्देश्य यह है कि स्वामी को लाभ हो, उसके अधिकार सुरक्षित रहें और जनता को किसी प्रकार का ख़तरा न रहे। दास का यह अभाग्य है कि न तो उसे और न उसकी सन्तति को इतना ज्ञान और बल प्राप्त हो सकता है कि वह किसी वस्तु को स्वयं अपनी बना सके। उसको तो केवल इसी उद्देश्य से परिश्रम करना है कि फल की प्राप्ति दूसरों को हो......। ऐसी सेवा की केवल उसी से आशा की जा सकती है जिसकी स्वयं अपनी कोई इच्छा न हो और जो अपनी इच्छा को चुपचाप दूसरे की आज्ञा में समर्पण कर दे। जब तक दास के शरीर पर स्वामी का अनियंत्रित अधिकार न हो तब तक इस प्रकार आज्ञा पालन का भाव नहीं उत्पन्न हो सकता.....। अतः दास को पूर्ण रूप से आज्ञाकारी बनाने के लिए उसके ऊपर स्वामी को निर्विघ्न शासन करने का अधिकार मिलना चाहिए।"

क़ानून की इन कठोर परिस्थितियों में हबशियों को अपने स्वामियों के हाथों क्या बर्ताव सहन करना पड़ता था इसका वर्णन करने की अपेक्षा अनुमान ही अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है।

१६१९ ई॰ से लेकर १८६५ ई॰ तक के दासता के समय में हबशियों पर जो निर्दयतापूर्ण अत्याचार किये गये वे वर्णनातीत हैं। भारतवर्ष के इतिहास में उस अत्याचार की समता करनेवाली कोई बात नहीं है। भारत ही क्यों एशिया के समस्त इतिहास में वैसी कोई घटना नहीं घटी। १८६५ ई॰ में जब अमरीका के उत्तरी राज्य दक्षिणी राज्यों के साथ केवल हबशियों को मुक्तिदान दिलाने के लिए गृह-युद्ध में संलग्न थे तब स्वतंत्रता-प्रिय ग्रेट ब्रिटेन ने दक्षिणी राज्यों का साथ दिया था। यह वही ग्रेट ब्रिटेन है जिसे भारत में लोकोपयोगी और उदारतापूर्ण कार्य्यों के करने के लिए मिस मेयो आसमान पर चढ़ा रही है। वाह रे! ग्रेट ब्रिटेन की उदारता!

१७९२ ईसवी और १८३४ ईसवी के बीच के समय में 'डेलावेयर,' 'मैरीलेंड,' 'वरजिनिया,' और 'केन्ट' की सीमा प्रदेश की चारों रियासतों ने हबशियों को मताधिकार देना अस्वीकार कर दिया था। १८३५ ई॰ से उत्तर 'कैरोलिना' ने भी हबशियों को मताधिकार से वञ्चित कर दिया। 'न्यूज़र्सी,'