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दुखी भारत

अपनी जिस पुस्तक से मैंने उपरोक्त उदाहरण लिये हैं उसके लिखे जाने के समय में जैसे पाशविक कृत्य होते थे वैसे ही अब भी हो रहे हैं। १९२७ की क्राइसिस की कुछ संख्याओं से लिये गये निम्नलिखित वर्णन पढ़ने के पश्चात् इस सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं रह जाता। क्राइसिस की अगस्त की संख्या में लिखा है:—

निर्दयतापूर्ण हत्यायें

"हाल में संयुक्त राज्य में जो भयङ्कर हत्याकाण्ड हुए हैं उन्हीं पर नहीं, विश्वास में न आ सकनेवाले मानव प्राणियों को जीवित अग्नि में जलाने के दुष्कृत्यों पर भी संयुक्त-राज्य ने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया, किञ्चित्-मात्र भी विरोध नहीं प्रदर्शित किया। कदाचित् ही इसके लिए धर्म-वेदी पर कोई शब्द कहा गया हो। १०० में १०० अमरीकावासी इस सम्बन्ध में चुप्पी साधे हैं। इन प्रजातंत्र के रक्षकों, स्थल और जलसेना के प्रचारकों के मुंह से आह! तक नहीं निकलती। फिर यह मोनावलम्बन उस दशा में है जब कि लूइसवेली और मिसीसिपी की हत्याओं का कारण मेम्फिस की कमर्सियल अपील के अनुसार केवल यह है कि 'पुरानी और मन्द गति से चलनेवाली फोर्ड मोटरों में सवार हबशियों ने पीछे की तीव्र गति से चलनेवाली मोटरों को रास्ता देना अस्वीकार कर दिया था। ओहो! केवल इतनी सी बात पर चारों ओर कितना क्रोध और घृणा फैल गई।' इतने पर भी प्रत्येक प्रकार के मौनावलम्बन-द्वारा हम इस बर्बरता को छिपाये और दबाये हुए जेनेवा और पेकिङ्ग की कौंसिलों में भाग ले रहे हैं और संसार को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारा राष्ट्र बड़ा सभ्य है।"

नीचे उसी अङ्क से एक दूसरा पैराग्राफ़ और दिया जाता है।

सामूहिक चालें

संयुक्त-राज्य में सामूहिक हिंसा ने एक क्रमबद्ध रूप धारण कर लिया है। ये कार्य्य कुछ कुछ इस प्रकार किये जाते हैं:—

"कोई अपराध किया जाता है। पुलिस किसी हबशी को गिरफ्तार करने दौड़ती है। निस्सन्देह यह ढङ्ग खूब प्रचलित है, क्योंकि गोरी जनता हबशियों