पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/१९

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विषय-प्रवेश

पुस्तक के पश्चात् मिस मेयो उन्हीं उद्देश्यों से भारत की यात्रा करे। मिस्टर कर्टिज़ ने अपनी भूमिका में लिखा था*[१] :––

"ब्रिटिश सरकार पर जितने आश्रित देशों का उत्तरदायित्व है उतना दूसरे सब राष्ट्रों पर मिलाकर भी नहीं है। हमारा यह अनुभव शताब्दियों से है (क्या हम पूछ सकते हैं कि कितनी शताब्दियों का क्योंकि एशिया में ब्रिटिश साम्राज्य का प्रारम्भ हुए अभी पूरी दो शताब्दियाँ भी नहीं हुई?)... दूसरों के अनुभवों की उपेक्षा करने की हमारे पास बहुत गुजाइश नहीं है, ख़ासकर पश्चिम के चञ्चल-हृदय नवयुवक स्वामियों के अनुभवों की।...... हिन्दुस्तान और उपनिवेशों की समस्याओं के सम्बन्ध में बहस करते समय एक मन्त्री से यह पूरी आशा रक्खी जाती है कि वह पार्लियामेंट को बतलावे कि अमरीका या हालेंडवाले वैसी ही समस्याओं से फ़िलीपाइन या जावा में कैसे पेश आते हैं। १९१७ ई॰ में अमरीका ने फ़िलीपाइन द्वीपों में जिस नीति का अनुसरण किया वह बिल्कुल वैसी ही थी जैसे हिन्दुस्तान में आम तौर पर राष्ट्रीय आन्दोलन किया जारहा है। उसके दूसरे वर्ष बाद भारत सरकार से पेंशन लेकर सर डब्ल्यू॰ मेयर ने फ़िलीपाइन की यात्रा की। अमरीका किस ढङ्ग से शासन करता है इस बात की रिपोर्ट उन्होंने दी होगी पर 'इंडिया आफ़िस' ने उसका भेद कभी नहीं खोला।"

दूसरे पैराग्राफ़ में कर्टिज़ महाशय इस बात को ख़ुलासा कर देते हैं कि फ़िलीपाइन द्वीप-समूहों पर लिखी गई मिस मेयो की पुस्तक भारत के अँगरेज़ शासकों के कितने काम की है :––

"अमरीका की कांग्रेस ने १९१६ ई॰ में 'जोन्स-ला' नामक क़ानून पास किया। उसके अनुसार व्यवस्थापिका सभा का शासन और उसके चलाने का काम फ़िलीपाइन निवासियों के दे दिया गया पर कार्यकारिणी की शक्ति अमरीका के प्रेसिडेंट की मातहती में एक गवर्नर के ही हाथों में बनी रही। भारत को १९२० ई॰ में जो राजनैतिक अधिकार मिले हैं और भारतीय विधान के अनुसार जिनके सिवाय और नहीं मिल सकते थे वे इस 'जोन्सला' से बहुत कुछ मिलते जुलते हैं।


  1. दी आइल्स आफ़ फियर (भय के द्वीप) की भूमिका। लन्दन संस्करण पृष्ठ ९––१०