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चाण्डाल से भी बदतर-समाप्त


कर दी है। परन्तु यह भूमि उनकी जीविका के लिए यथेष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त उन पर कड़े कर लगाये गये हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें गोरों के खेतों में उन्हीं की शतों पर काम करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह प्रणाली अफ्रीकावासियों को जिस असमर्थता तक पहुँचा देती है उसकी कथा बड़ी करुण है। पूर्वी अफ़्रीका में स्वास्थ्य-विभाग के एक ब्रिटिश-अफसर डाक्टर नार्मन लीज़ ने अपनी 'कीनिया' नाम पुस्तक में इस कथा का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। अभी हाल में एक ब्रिटिश इजीनियर श्रीयुत मैकग्रेगर रॉस ने भी इसी कथा को फिर से कहा है।

अफ़्रीका के आदिवासियों के लिए पृथक भूमि की व्यवस्था कर देने की नीति दक्षिणी अफ़्रीका में काम में ले आई जाने लगी है। डाक्टर नारमन लीज़ एक समाचार-पत्र में लिखते हैं कि, 'गत ग्रीष्म-काल में शासन-संघ ने अफ़्रीका के आदिवासियों के सम्बन्ध में जो कानून जारी किया है वह उसी नीति का अनुकरण है जो वर्ण-भेद-नियम के रूप में बर्ती जा रही है, जो अफ्रीकावासियों को मुख्य मुख्य बुद्धिमानी के व्यवसाय करने से रोकती है और जिसने केप प्रान्त के विवासियों को अब तक प्राप्त मताधिकार से वञ्चित कर दिया है। दक्षिणी अफ़्रीका के नये कानून के अनुसार गवर्नर जेनरल "सार्वजनिक हित के लिए जब उचित समझे तब और चाहे जिन शतों पर एक देशी जाति को या उसके किसी भाग को या किसी देशी व्यक्ति को अपने संघ के भीतर एक स्थान से दूसरे में जाकर रहने की प्राज्ञा दे सकता है। हां, यदि कोई जाति इस पर आपत्ति करे तो जब तक पार्लियामेंट के दोनों भवनों में इस आशय का कोई प्रस्ताव पास न हो जाय तब तक गवर्नर जेनरल ऐसी आज्ञा को स्थगित रखेगा।'

इस प्रकार देशी जातियों का, जिन्होंने अपने खास व्यापार-संध स्थापित कर लिये हैं, दमन करने के लिए इस कानून द्वारा एक मार्ग निकल आया। और यदि इस कानून को इसी रूप में कार्य करने दिया गया तो यह देशी जातियों को उनकी भूमि से भी वञ्चित कर सकता है। देशी जातियों पर इस दमन कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है।