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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


दशम खण्ड का ८५ मंत्र देखिए। उसमें सोम का सवितर-अर्थात् सूर्य्यदेव की कुमारी कन्या सुरमा-से विवाह-प्रार्थना करने की बात मिलती है। सुरमा को 'इच्छुकवधू' कहा गया है। और विवाह के पश्चात् ही वर उसे धूम-धाम के साथ अपने घर ले जाता है। वहाँ विवाह की सब विधियाँ समाप्त की जाती हैं।

३६ वें मन्त्र में विवाह के सिद्धान्त वर्णित हैं। इसे आज भी प्रत्येक हिन्दू वर और वधू विवाह के अवसर पर परस्पर कहते हैं। मन्त्र का अर्थ यह है-'सुख के लिए मैं तुझे अपने दाहिने हाथ से स्वीकार करता हूँ जिससे कि तू मेरे, अपने पति के साथ साथ वृद्धावस्था को प्राप्त हो। 'आर्य्यमन', 'भग', 'सवितर', 'परमादी'*[१] ने तुझे मेरे हाथों सौंपा है जिससे कि हम दोनों मिलकर अपने गृह का शासन करें।

अपने पति के घर में आने पर वधू का इस प्रकार स्वागत किया जाता है:-

"यहाँ तू धन-धान्य और सन्तति से सम्पन्न होकर प्रसन्नता के साथ रह। इस गृह की सावधानी के साथ देख-रेख कर। अपने पति के साथ निवास कर और वृद्धावस्था प्राप्त होने पर तेरा इस गृह पर शासन बना रहे। अब तू यहीं रह। कभी पृथक न हो। अपने जीवन के सम्पूर्ण वर्षों का सुख-भोग कर। पुत्रों और पौत्रों की क्रीड़ा देखकर गृह के भीतर प्रसन्नचित्त बनी रह।"

इसके पश्चात् उसे अन्तिम आशीर्वाद देकर स्वागत कार्य समाप्त किया जाता है। यह आशीर्वाद पहले पति देता है उसके पश्चात् सब एकत्रित जन उसे दुहराते हैं। पति कहता है:-

"प्रजापति हमें पुत्र और पौत्र प्रदान करें। आर्यमन हमें वृद्धावस्था तक टिकनेवाली सम्पत्ति देखें। अब तुम अपने पति-गृह में प्रवेश करो। गृह के भीतर मनुष्यों और पशुओं की वृद्धि हो और वे सुख से रहें। तेरे कारण पशुओं तक का आग्य जगे। तेरा हृदय कोमल हो, मुखमण्डल प्रसन्न हो, तू

  1. * वैदिक देवताओं के नाम।

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