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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


उदाहरण मिलते हैं। इसके विरुद्ध जितने भी प्रमाण पाये जाते हैं वे सब क्षत्रिय-जाति से सम्बन्ध रखते हैं। यह बात सब लोग स्वीकार करते हैं कि इन महाकाव्यों में बड़ी स्वतंत्रता के साथ नये नये श्लोक जोड़े गये हैं। यह कार्य अभी हाल के समय तक जारी रहा है। इससे यह सम्भावना की जाती है कि इस सम्बन्ध में जो वर्णन मिलते हैं वे बहुत पश्चात् के समय के होंगे-उस समय के जब स्त्रियों का पर्दे में रहना सम्मान का चिह्न समझा जाने लगा।

रामायण और महाभारत काल में इसके अतिरिक्त और किसी दशा में स्त्रियों का स्थान नहीं गिरा। वास्तव में मैं तो यहां तक समझता है कि इस काल में भारतवर्ष में स्त्रियों को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त था। तभी से इसका क्रमशः पतन होना आरम्भ हुआ है। उस समय नृत्य, गान और घोड़े की सवारी करना स्त्रियों के गुण समसे जाते थे और कदाचित् स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध सर्वोत्तम ढङ्ग का था।

सूत्रकाल-रामायण और महाभारत-काल से हम सूत्रकाल में पाते हैं। संस्कृत-साहित्य का सूत्रकाल अपने दङ्ग का एक ही है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ सूत-धागा है। सूत्र-कालीन साहित्य संक्षिप्त विवरणों से आच्छादित है। धर्म, दर्शन, सिद्धान्त, विज्ञान सबके सकुंचित रूप अर्थात् सूत्र बन गये थे। आर्यों के बहुत से पवित्र सिद्धान्त और स्मृतियाँ इसी काल की हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उनकी नींव प्राचीन थी परन्तु उनका स्वरूप बहुत पश्चात् के समय का था। हिन्दू आर्य्यों के सब बातों के नियमबद्ध करने के ये प्रथम उद्योग थे। और उनके स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध-सम्बन्धी धर्मशास्त्र में हमें संकीर्णता और उदारता तथा स्वतंत्रता और नियंत्रण का विचित्र सम्मिश्रण मिलता है। इन नियमों का रचना-काल निश्चित करना कठिन है। योरप के विद्वान उन्हें बौद्धकाल के पश्चात् का अर्थात् ईसवी से ५०० वर्ष पहले के पश्चात् का बतलाते हैं। हिन्दू उनके लिए अधिक प्राचीनता का दावा करते हैं। कदाचित् सत्य इन दोनों छोरों के बीच में है। मूल रूप में तो ये धर्मशास्त्र बौद्धकाल के पूर्व के ही हैं परन्तु आज वे जिस रूप में हैं वह बौद्धकाल के पश्चात् की रचना है। इनमें रचयिताओं ने वे बातें भी जोड़ दी हैं जो