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दुखी भारत

इसलिए जो लोग भारतीय दशाओं के अध्ययन में लगे हैं उन्हें फ़िलीपाहन में जोन्सला की कारगुज़ारियों को ख़ूब समझ लेने की आवश्यकता है। ऐसी जाँच-पड़ताल को उत्तेजना मिलने की आशा से मैं अँगरेज़ पाठकों को यह पुस्तक पढ़ने की सलाह देता हूँ।"

कर्टिज़ महाशय यह जानते हैं कि "अमरीका ने फ़िलीपाइन द्वीपों को स्वराज्य देने में जो जल्दी की और मिस मेयो के वर्णन के अनुसार उसका जो दुष्परिणाम हुआ सम्भवतः वही बातें १९१७ ई॰ में भारत को स्वराज्य देने की जो घोषणा हुई थी उसको बुरा कहने के लिए तर्करूप में पेश की जायँगी।"

मिस मेयो का बयान है कि मदर इंडिया को उसने केवल अपने देशवासियों के लाभ के लिए लिखा पर अभी तक उसने हमें यह नहीं बताया कि भारतवर्ष का इस प्रकार अपमान करने से अमरीका के लोगों को क्या लाभ होगा? कोई वैसा ही लाभ तो नहीं जैसा कर्टिज़ महाशय 'भय के द्वीप' को पढ़ने की सलाह देकर अँगरेज़ शासकों को पहुँचाना चाहते हैं।

किसी तरह से हो हमारा इस परिणाम पर पहुँचना अनुचित नहीं है कि १९२५ ई॰ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के योद्धा मिस्टर कर्टिज़ और 'भय के द्वीप' की रचयित्री मिस मेयो में कुछ इस प्रकार की बातें और कोई पारस्परिक समझौता अवश्य हुआ जिसके फल-स्वरूप अक्टूबर १९२५ के आरम्भ में मिस मेयो का 'इंडिया आफ़िस' होते हुए भारत में आगमन हुआ। इंडिया आफ़िस के अधिकारियों के सामने उसे किसने उपस्थित किया? अधिकारियों को उसे भारत में काम में लाने के लिए परिचय-पत्र देने को किसने फुसलाया? ये प्रश्न हैं जिनका जवाब कर्टिज़ महाशय चाहें तो कौतुक-प्रेमियों के लाभ के लिए दे सकते हैं। ख़ैर जो हो, शुरू अक्तूबर १९२५ में मिस मेयो ने 'इंडिया आफ़िस' के दरवाजे पर आवाज़ लगाई। 'इंडिया आफ़िस' के भले मानुषों ने उससे पूछा––"आप हम लोगों से क्या सहायता चाहती हैं?" उसने जवाब दिया :––

"मैं जो कहूँ उसका आप विश्वास करें। इसके सिवाय मैं और कुछ नहीं चाहती। एक विदेशी अजनबी जो प्राचीन शिल्प-विद्या के अध्ययन के लिए न निकला हो, दार्शनिकों और कवियों की खोज में न हो, किसी