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दुखी भारत


मिलता था। इस स्थान पर हिन्दू-धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वीकृत विवाहों की गणना मनोरञ्जक होगी।

हिन्दू-धर्म ने आठ प्रकार के विवाह माने हैं। इनमें से चार स्वीकार किये जाते हैं, एक क्षम्य समझा जाता है और शेष तीन के लिए आज्ञा नहीं है। परन्तु इनकी गणना विवाहों में की जाती है। इससे सिद्ध है कि किसी समय में ये स्वीकार भी किये जाते रहे होंगे। विवाह के स्वीकृत-रूप वे हैं जिनमें कुल-रीति के अनुसार कन्या-दान किया जाता है। क्षम्य विवाह वह है जिसमें संरक्षक की अनुमति के विरुद्ध पारस्परिक प्रेम के द्वारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिन तीन विवाहों के लिए आज्ञा नहीं है, वे इस प्रकार हैं। (क) जिलमें पिता कन्या के लिए मूल्य मांगता है और लेता है। (ख) जिसमें कन्या अपनी इच्छा के विरुद्ध हरण कर ली जाती है। (ग) जिसमें कोई पुरुष किसी ऐसी स्त्री के साथ सम्भोग करता है जो सुप्तावस्था में होती है या किसी अन्य प्रकार से बेसुध होती है। यह सबसे नीच कर्म समझा जाता था परन्तु जब यह हो ही जाता था तब सम्बन्धि जनों के हित के लिए नियमानुकूल मान लिया जाता था*[१]

हिन्दू-वंश-विज्ञान-हिन्दुयों ने वंश-वृद्धि-सम्बन्धी नियमों का अत्यन्त उच्च आदर्श विकसित किया था। नीचे हम धर्म-शास्त्रों से कुछ नियम देते हैं। इनसे यह बात स्पष्ट हो जायगी:-

नारद कहते हैं:-"पहले विवाहार्थी के पुरुषत्व की परीक्षा होनी चाहिए। जब उसका पुरुषत्व प्रमाणित हो जाय और सन्देह के लिए कोई स्थान न रह जाय तब उसका विवाह होना चाहिए, अन्यथा नहीं।

"यदि उसकी हँसली, घुटने की हड्डियाँ, और साधारण रूप से सब हड्डियाँ दृढ़ हों, यदि उसके कन्धे और बाल भी दृढ़ हों, यदि उसकी ग्रीवा का ऊपरी पृष्ठ-भाग पुष्ट हो, और उसकी जङ्घा तथा त्वचा कोमल हो और यदि उसकी चाल और आवाज़ में प्रभाव प्रतीत हो......तो इन चिह्नों से समझना। चाहिए कि उसमें पौरुष है। और यदि इसके विरुद्ध लक्षण मिलें तो समझना चाहिए कि वह पुरुषत्वहीन है†[२]।"

  1. * नारदसंहिता अध्याय १२/३८-४४।
  2. † नारद-संहिता अध्याय १२/८-१३