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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


नारद का पुरुष की योग्यता पर जोर देना और मनु का स्त्री की योग्यता पर यह सिद्ध करता है कि नारदीय शास्त्र-रचना-काल से मनु के नाम से प्रसिद्ध धर्म-शास्त्र के काल में, जो कि आज तक माना जाता है, हिन्दुओं के विचारों में, कितना परिवर्तन हो गया है।

मनु कहते हैं-जिसने अपना अध्ययन समाप्त कर लिया है और जो गृहल्याश्रम में प्रवेश करना चाहता है उसको चाहिए कि वह इन दस कुलों की कन्या से विवाह न करे-वह कुल जो धर्मानुष्ठानों की अवहेलना करता हो, जो वेदों के ज्ञान से रहित हो, जिसमें पुरुष न हों, जिस कुल के लोगों के शरीर पर बहुत बाल हो, वे कुल भी जिनमें क्षय, अजीर्ण, मृगी और कुष्ट के रोग पाये जायें।

"उसे पीले और भूरे रजवाली, आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों के कुलबाली, रोगग्रस्ता, बालरहित या बहुत बालोंवाली, बकवादी, लाल आँखोंवाली, नक्षत्र, वृक्ष, नदी, पक्षी, सप या दास नामवाली या किसी भयानक नामवाली कन्या से भी विवाह नहीं करना चाहिए।

"उसे सुन्दरी, सौभाग्यसूचक नामवालो, हंस या हाथी के समान चाल चलनेवाली, पतले गुच्छेदार बालोंवाली, सुन्दर महीन दांतोंवाली और कोमलाङ्गी स्त्री से विवाह करना चाहिए।"

सभी स्मृतिकार इस बात से सहमत हैं कि सबसे उत्तम विवाह वही है जो अपनी जाति के भीतर ही किया जाय। परन्तु वे उन कुल के मनुष्य को नीच कुल की स्त्री से विवाह करने की आज्ञा देते हैं। जाति से बाहर किये गये पर नियमानुकूल माने गये विवाहों से उत्पञ्च सन्तति को पहले के स्मृतिकार पिता के कुल का स्वीकार करने के पक्ष में हैं परन्तु बाद के स्मृतिकार इसके विरुद्ध हैं। वर्तमान समय में हिन्दुओं में मूल चार वर्णों के अतिरिक्त जो अनेक जातियां और उपजातियां पाई जाती हैं वे बहुत कुछ इन्हीं मिश्रित विवाह से उत्पन्न हुई हैं।

मनुस्मृति में दी गई समस्त बातों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि जब इसकी रचना हुई थी तब निर्णायकों और स्मृति-