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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


उन्हें भारतवर्ष-व्यापी प्रथायें बतलाते हैं। वे काफी बुरी हैं। और कम से कम उनमें से एक अर्थात् बाल-विवाह की प्रथा सारे देश में पाई भी जाती है। परन्तु निःसन्देह वे इतनी बुरी या इतनी प्रचलित नहीं हैं जितनी कि बताई जाती हैं। सती और शिशु-हत्या की प्रथा सार्वभौमिक कभी नहीं थी। अधिकतर राज-वंशों या अत्यन्त उच्च कुलों तक ही प्रचलित थीं। आरम्भ में सती पूर्ण रूप से स्वेच्छानुसार थी। इन प्रथाओं में से कुछ नष्ट हो चुकी हैं। दूसरी प्रथायें भी या तो नष्ट हो रही हैं या उनमें परिवर्तन हो रहा है। आधुनिक काल में जितने सुधारक-दल काम कर रहे हैं सब समाज में स्त्रियों को उनका प्राचीन उच्च स्थान देने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं।

क़ानूनी पद-हिन्दू कानून पत्नी के अपनी निजी सम्पत्ति रखने के अधिकार को सर्वदा से मानता आया है। अध्याय ३ श्लोक १९४-११५ में मनु कहते हैं:-

"जो कुछ भी विवाह-यज्ञ के समय स्त्री को दिया जाता है जो उसे वैवाहिक यात्रा के समय मिलता है, जो प्रेमोपहार के रूप में मिलता है और जो भाई, माता और पिता से मिलता है वह सब उलका ६ प्रकार का धन कहलाता है। जो कुछ भी उसे (विवाहिता को) विवाह के पश्चात् अपने पति के कुटुम्बियों से अथवा अपने दूसरे सम्बन्धियों से भेंट-स्वरूप प्राप्त होता है और जो कुछ भी उसे अपने प्यारे पति से प्राप्त होता है वह सब पति की जीवित अवस्था में उसके (स्त्री के) मर जाने पर उसके बच्चों की सम्पत्ति हो जाता है।"

एक सम्मिलित हिन्दू कुटुम्ब में पुरुष या स्त्री कोई भी सम्पत्ति के किसी निश्चित भाग का अधिकारी नहीं हो सकता। कुटुम्ब के समस्त पुरुषों और स्त्रियों का हित सामने रखकर कुटुम्ब का प्रधान सम्पूर्ण सम्पत्ति का प्रबन्ध करता है। पुत्रियों का जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक वे उस कुटुम्ब की सदस्या समभी जाती हैं। परन्तु जब उनका विवाह हो जाता है तब वे दूसरे कुटुम्ब में जाकर सम्मिलित हो जाती हैं। विभक्त कुटुम्बों में कतिपय दशाओं में विधवाएँ, माताएँ, पुत्रियाँ और बहनें उत्तराधिकारी मानी जाती हैं। कुछ स्मृतिकारों के अनुसार अविवाहिता पुत्री अपने भाई की भांति पिता की सम्पत्ति का एक भाग पाती है। साधारणतया यह होता है कि पिता की मृत्यु