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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


निक और समुन्नत दृष्टिकोण से देखे जायेंगे तो लाभ से खाली न प्रतीत होंगे। मनु स्त्री की समता खेत ले और पुरुष की बीज से करते हैं।*[१] कहीं वीर्य को मुख्य वस्तु माना है, कहीं स्त्री के गर्भाशय को! जब दोनों उत्तम होते हैं तब सन्तति सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है। वीर्य और गर्भाशय में साधारण रूप से तुलना की जाती है तो वीर्य को अधिक महत्त्व मिलता है। क्योंकि प्रत्येक जीवधारी की सन्तति में वीर्य्य की विशेषता पाई जाती है। वीर्य्य में जो भी गुण होंगे वे सब सन्तति में मिलेंगे। क्योंकि यद्यपि इस पृथ्वी को विधि की रचना का विशाल गर्भाशय कहा गया है तथापि इससे जो वस्तुएं उत्पन्न होती हैं उनमें बीज इस गर्भाशय-रूपा पृथ्वी का एक भी गुण नहीं प्रदर्शित करता। पृथ्वी में-एक या एक ही प्रकार की भूमि में भी किसान जो बीज बोते हैं ये नियत समय पर उगने पर अपने प्राकृतिक गुणों के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप के होते हैं। चावल, शालि (एक प्रकार का चावल) गन्ना, तिल आदि, अरहर आदि, और जो अपने अपने वीज के ही अनुसार उगते हैं। और इसी प्रकार लहसुन और गन्ना आदि भी उपजते हैं। अतएव एक शिक्षित पुरुष जो इन नियमों को जानता है और जो बुद्धिमान् है, किसी दूसरे पुरूष की स्त्री में कदापि वीर्यारोपण नहीं कर सकता।'

विवाह-विच्छेद-हिन्दू-धर्म-शास्त्र के अनुसार विवाह एक अत्यन्त पवित्र-प्रतिज्ञा है और सिद्धान्तरूप में यह बन्धन कभी तोड़ा नहीं जा सकता। एक बार विवाह हो गया, सदा के लिए विवाह हो गया, यही नियम है। यह सिद्धान्त विधवाओं के पुनर्विवाह की प्राज्ञा नहीं देता। यद्यपि विधुरों के विरुद्ध इतनी कड़ाई के साथ इसका प्रयोग नहीं होता। पर तो भी अधिक प्राचीन धर्म-पुस्तकों से पता चलता है कि उन दिनों विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा ही प्रचलित नहीं थी बरन कतिपय परिस्थितियों में पति-पत्नी दोनों को एक दूसरे की जीवितावस्था में भी पुनर्विवाह करने की आज्ञा थी। विधवाओं की समस्या पर हम किसी दूसरे अध्याय में पुनः विचार करेंगे।

  1. * अध्याय ९ श्लोक ३२