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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


सहवास करती है और अपने पति से इसलिए घृणा करती है कि वह पागल, पतित, नपुंसक या रोगी है तो मनु उसे क्षमा कर देते हैं परन्तु यदि पति स्त्री की ओर से केवल लापरवाह हो, शराबी हो, या अत्यन्त साधारण रोग से पीड़ित हो तो वे व्यभिचारिणी को क्षमा नहीं करते। परन्तु उस दशा में भी यह नहीं कहते कि पति उसको सदा के लिए त्याग दे। केवल तीन मास तक वह उससे विमुख रह सकता है। यदि पत्नी मदिरा पान करती हो, सदा पति का विरोध करती हो, रोगिणी हो, पति को सङ्कट में डाले रहती हो, या सदैव धन का अपव्यय करती हो तो मनु पति को और विवाह भी करने की आज्ञा देते हैं। फिर भी वन्ध्या स्त्री के सम्बन्ध में कहते हैं कि पुरुष को ८ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। परन्तु यदि स्त्री का स्वभाव प्यार करने के योग्य हो, और वह गुणवती हो तो उसके बन्ध्या होने पर पति तभी पुनर्विवाह कर सकता है जब वह स्त्री इसके लिए आज्ञा दे।

मनु के वर्तमान धर्म शास्त्र के रचना-काल में विधवाओं के पुनर्विवाह की निन्दा होने लगी थी। मैं नहीं समझता कि मनु का वर्तमान धर्म-शास्त्र मी इसे धर्म-विरुद्ध' समझता है। हाँ, इनमें सन्देह नहीं कि यह इसकी स्वीकृति नहीं देता। साधारण धार्मिक संयम की दृष्टि से देखा जाय तो मनुस्मृति के विवाह का आदर्श उच्च प्रतीत होगा परन्तु आधुनिक विचारों की दृष्टि से कहा जाय तो यह कठोर और अनुदार ज्ञात होगा। मनु के मतानुसार पति-पली का संक्षेप में एक दूसरे के प्रति यही कर्तव्य होना चाहिए कि वे मृत्यु-पर्यन्त एक दूसरे को मन, वचन या कर्म से दुःखी न करें। और यह वादा किया गया है कि जो इस लोक में सचाई के साथ इस कर्तव्य का पालन करेंगे वे शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात् दूसरे लोक में जाने पर भी एक दूसरे के साथ ही रहेंगे और कभी पृथक् न होंगे*[१]

इसका उद्देश्य यह था कि स्त्री-पुरुष दोनों अपने अपने व्यक्तित्व को पूर्णरूप से एक में मिला दें। कहा जाता है कि 'जिस प्रकार नदी का पानी उस समुद्र का गुण ग्रहण कर लेता है जिसमें कि वह मिलती है उसी प्रकार पतिव्रता

  1. * मनुस्मृति अध्याय ९, श्लोक १०१; अध्याय ५ श्लोक १६५।