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दुखी भारत


स्त्री अपने गुणों को अपने पति में मिला देती है।'*[१] यहाँ पति की उपमा समुद्र से दी गई है और इस प्रकार उसकी प्रधानता स्वीकार की गई है। उसी अध्याय में†[२] एक दूसरे स्थान पर कहा गया है कि-'पुरुष केवल पुरुष ही नहीं है; वहा परुष स्त्री और सन्तति तीन है। ऋषियों ने इस बात की घोषणा की थी कि 'पति वही है जो स्त्री है।' दूसरे स्थान‡[३] पर यह स्पष्टरूप से कह दिया गया है कि यदि पत्नी उच्चारमा हो और पति पापी हो और पत्नी यह निश्चय कर ले कि वह मृत्यु-पर्य्यन्त उसका साथ देगी तब जैसे सबल मदारी गहरी से गहरी कन्दरा से भी साँप को पकड़ कर प्रकाश में खींच लाता है वैसे ही स्त्री के प्रेम और त्याग पति की आत्मा को पाप और अन्धकार से पकड़ कर ऊपर के प्रकाशमय जगत् में खींच ले जाते हैं। यहाँ स्त्री के प्रेम को पति की बुद्धि की अपेक्षा अधिक उच्च स्थान दिया गया है। एक प्राचीन कथापुस्तक§[४] में इस सम्पूर्ण विषय का बड़ा सुन्दर कवितामय वर्णन मिलता है। उसमें कहा गया है:-

"पुरुष विष्णु है, स्त्री लक्ष्मी। पुरुष विचार है, स्त्री भाषा। पुरुष धर्म है, स्त्री बुद्धि। पुरुष तर्क है, स्त्री भावना। पुरुष अधिकार है, स्त्री कर्त्तव्य। पुरुष रचयिता है, स्त्री रचना। पुरुष धैर्य है, स्त्री शान्ति। पुरुष हट है, स्त्री इच्छा। पुरुष दया है, स्त्री दान। पुरुष मंत्र है, स्त्री उच्चारण। पुरुष अग्ति है, स्त्री ईंधन। पुरुष सूर्य है, स्त्री आभा। पुरुष विस्तार है, स्त्री सीमा। पुरुष आँधी है, स्त्री गति। पुरुष समुद्र है, स्त्री किनारा। पुरुष धनी है, स्त्री धन। पुरुष युद्ध है, स्त्री शक्ति। पुरुष दीपक है, स्त्री प्रकाश। पुरुष दिन है, स्त्री रात्रि। पुरुष वृक्ष है, स्त्री फल। पुरुष संगीत है, स्त्री स्वर। पुरुष न्याय है, स्त्री सत्य। पुरुष सागर है, स्त्री नदी। पुरुष स्तम्भ है, स्त्री पताका। पुरुष शक्ति है, स्त्री सौंदर्य्य। पुरुष आत्मा है, स्त्री शरीर!"

  1. * मनुस्मृति अध्याय ९, श्लोक २२।
  2. † उसी पुस्तक से अध्याय ९, श्लोक ४५।
  3. ‡ उसी पुस्तक से अध्याय ९, श्लोक २३।
  4. § विष्णुपुराण १-८ ।-विष्णुभागवत ६-१९।