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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


इस वर्णन से यह बात ज्ञात हो सकती है कि कतिपय अवस्थाओं में स्त्री को प्रधानता दी गई है, और कतिपय अवस्थाओं में पुरुष को। दाने 'समान रूप से महत्त्व-पूर्ण, अनिवार्य और अभिन्न हैं। दोनों में कुछ ऐसी मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ हैं कि ये परस्पर एक दूसरे की कमी को पूरी करती हैं। प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन में दोनों विद्यमान रहते हैं परन्तु कतिपय अवसरों पर एक अपने स्वरूप में और दूसरा अपने विशेष और समुन्नत स्वरूप में प्रकट होता है*[१]। अँगरेज़ी के 'बेटरहाफ' (सुन्दराद्ध) के समान संस्कृत में भी नियों के लिए अर्धाङ्गी शब्द का प्रयोग किया जाता है। परन्तु इसका अर्थ 'सुन्दरार्द्ध भाग' नहीं, केवल 'अर्द्ध भाग' है। यह कल्पना सम्भवतः मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३२ वें श्लोक पर की गई है। उसमें यह कहा गया है कि ब्रह्म-सृष्टिकर्ता ने अपने ही शरीर को दो भागों में विभक्त किया। एक भाग पुरुष बन गया और दूसरा भाग स्त्री। इसलिए विभक्त पुरुष और स्त्री एक पूर्ण पुरुष तभी बनते हैं जब दोनों पारस्परिक विवाह-सम्बन्ध से फिर एक में मिल जाय। और इस प्रकार एक पूर्ण पुरुष बनने पर ही वे धार्मिक कृत्यों का सफलतापूर्वक प्रतिपादन कर सकते हैं।


  1. * भगवानदासकृत 'समाजसङ्गठनविज्ञान' (अदयार, थियासिफिकल सोसाइटी) पृष्ठ, २२२।