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तेरहवाँ अध्याय

स्त्रियाँ और नवयुग

मिस मेयो ने भारतीय स्त्रियों के धर्माचरण और भारतीय समाज में उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त असह्य बातें कही हैं। अपने दृष्टिकोण से तो उसने इन बातों को बड़ी कुशलता के साथ लिखा है। परन्तु वास्तव में उसने सत्य और असत्य का बड़ी धूर्तता के साथ सम्मिश्रण किया है। जो चित्र उसने अङ्कित किया है वह भ्रमोत्पादक और अतिशयोक्ति-पूर्ण ही नहीं है वरन सत्य का घोर विरोधी भी है। यदि वह केवल बाल-विवाह की प्रथा और विधवाओं के पुनर्विवाह-निषेध पर ही आक्रमण करती तो उसके साथ कोई असहमत न होता। परन्तु वह तो अपनी मर्य्यादा भङ्ग करके ऐसे निष्कर्षों के आधार पर जो सर्वथा अप्रामाणिक हैं, अत्यन्त घातक रूप से भारत के पुरुषत्व और स्त्रीत्व पर आक्रमण करती है। उसने जिन प्रश्नों पर अपनी सम्मति प्रकट की है, मैं एक एक करके उन सब पर विचार करूँगा।

भारतीय स्त्रियों की साधारण स्थिति कतिपय अवस्थाओं में यथेष्ट शोचनीय है। भारतीय स्त्री अपनी परिस्थितियों से विवशतापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही है। जिस देश में पुरुषों की राजनैतिक और सामाजिक स्थिति ग़ुलामों की-सी हो वहाँ स्त्रियों की स्थिति किसी दशा में अच्छी नहीं हो सकती। भारतीय स्त्रियों की वर्तमान दशा पश्चिमीय स्त्रियों की अपेक्षा उतनी ही बुरी है जितनी कि भारतीय पुरुषों की दशा पश्चिमीय पुरुषों की दशा से बुरी है। परन्तु मिस मेयो की पुस्तक पाठक के हृदय में यह भाव उत्पन्न करती है कि भारतीय स्त्रियों की जैसी बुरी अवस्था वर्तमान समय में है वैसी ही सब काल में थी। परन्तु यह सत्य नहीं है। इस अध्याय के पूर्व हमने प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्थान का जो वर्णन दिया है उससे पाठकों ने स्पष्टरूप से समझ लिया होगा कि ऐसी बातें कितनी भ्रमोत्पादक हैं। वास्तविक हिन्दू भारत के इतिहास के प्रत्येक