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दुखी भारत

गत शताब्दी के मध्यकाल तक योरप और अमरीका की स्त्रियों की जो दशा रही है, उससे बुरी या निम्न अवस्था में भारतीय स्त्रियों को हिन्दू इतिहास के किसी काल में भी नहीं रहना पड़ा। पिछले अध्याय में हम यह लिख चुके हैं कि वैदिक काल में भारतवर्ष की स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का स्थान प्राप्त था। बौद्ध काल से उनकी दशा बिगड़नी आरम्भ हुई है परन्तु कानून की दृष्टि से बौद्ध-काल में भी उनको पूर्व का-सा ही स्थान प्राप्त था। यह एक विचित्र बात है कि योरप के रोमन-राज्य के समकालीन हिन्दू-इतिहास में स्त्रियों की स्वतंत्रता में जो रुकावटें डाली गई थीं वे बहुत अंशों में वैसी ही थीं जैसी कि रोमन राज्य में थीं। उदाहरण के लिए, दोनों जगह स्त्रियों को निरन्तर पुरुषों के संरक्षण में रहने की आवश्यकता थी। परन्तु भारतवर्ष में यह केवल कुछ ही स्मृतिकारों की सम्मति थी और प्रयोग में यह कभी नहीं लाई गई। हिन्दू-इतिहास के किसी भी काल में स्त्रियों को, जायदाद सम्बन्धी लिखा-पढ़ी करने, अपनी सम्पत्ति को मनमाने तौर से उपयोग करने, पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी बनने (यद्यपि केवल जीवन भर के लिए) अपनी सन्तान की संरक्षिका होने, और माता, पुत्री और बहन के रूप में सम्पत्ति के कुछ भागों का उत्तराधिकार पाने से, कभी भी वञ्चित नहीं किया गया। जीवन में उसके पति का जो स्थान रहा हो उसी की मर्यादा के अनुसार गृह में निवास करने और भरण-पोषण प्राप्त करने का उसे सर्व-प्रथम अधिकार था और अब भी है। उसके शिक्षा ग्रहण करने और धार्मिक कृत्यों में भाग लेने के अधिकार को कभी अस्वीकार नहीं किया गया।

पश्चिम में स्त्रियों की जो वर्तमान अवस्था है वह केवल गत ७५ वर्षों की उन्नति का फल है। इसके पूर्व योरप और अमरीका में स्त्रियों की दशा कानून, गृह-शासन, नीति और समाज प्रत्येक के दृष्टिकोण से उतनी अच्छी भी नहीं थी जैसी कि आज-कल भारतवर्ष की स्त्रियों की है। यदि इसी समय में भारतवासी भी स्वतंत्र होते तो इसमें सन्देह नहीं कि उनकी स्त्रियों की दशा पश्चिम की स्त्रियों की दशा से कहीं उत्तम होती। यदि मिस को अपनी दूसरे देशों की बहनों की भी भलाई का ध्यान होता तो स्वीकृति की आयु बढ़ाने और विवाह की कम से कम आयु निश्चित करने के व्यक्तिगत प्रस्तावों के सरकार