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दुखी भारत

रहन-सहन का दर्जा बढ़ने नहीं देती और प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका सभा में सुधारकों का विरोध करके करती है।

योरप में गत शताब्दियों से शिक्षा-प्रचार और रहन-सहन के दर्जे में उन्नति होने से विवाह की आयु बहुत बढ़ गई है। ऐसी कल्पना करने का कोई कारण नहीं है कि जब भारतवर्ष स्वतंत्र हो जायगा तो यही बातें यहाँ भी बाल-विवाह दूर करने में सहायक न होंगी। मनुष्य-गणना के विवरणों में यह बात स्वीकार की गई है कि जहाँ जहाँ ये बातें काम कर रहीं हैं वहाँ वहाँ बाल-विवाह का पक्ष निर्बल पड़ता जा रहा है। अङ्कों से स्पष्ट विदित होता है शिक्षित समाज में विशेषतः शिक्षित हिन्दुओं में विवाह की आयु अधिक होती जा रही है। मनुष्य-गणना के अध्यक्ष लोग इस बात को स्वीकार करते हैं। राष्ट्र-व्यापी शिक्षा-प्रचार की समस्या ऐसी नहीं है जो व्यक्तिगत उपायों द्वारा सफलता के साथ हल की जा सके। इस बात का उत्तरदायित्व सौतेली माता के समान ब्रिटेन पर ही है कि सर्व-साधारण में वह शिक्षा-प्रचार करना अस्वीकार करके पुरानी और नष्ट-प्राय कुप्रथाओं को फिर से नवजीवन दे रहा है।

भारतीय सुधारकों ने स्वीकृति की आयु को बढ़ाने के लिए बहुत ज़ोर लगाया था तब कहीं जाकर यह आयु १० से १२ वर्ष की गई। सर हरीसिंह गौड़ के अभी हाल में उपस्थित किये गये विल का तात्पर्य्य यह है कि विवाहिता बालिकाओं के सम्बन्ध में यह आयु १४ वर्ष मानी जाय और अविवाहिताओं के सम्बन्ध में १६ वर्ष। परन्तु बड़ी व्यवस्थापिका सभा के सरकारी कर्मचारी इसका विरोध कर रहे हैं। बालक-बालिकाओं की विवाह के लिए कम आयु निश्चित कर देने के लिए श्रीयुत हरविलास शारदा ने जो प्रस्ताव उपस्थित किया था वह बड़ी व्यवस्थापिका सभा की गत बैठक में सरकार की ओर से घोर विरोध होने के कारण एक निर्धारित कमेटी के विचाराधीन कर दिया गया। इसका क्या परिणाम हुआ? यह जानने में अब भी बहुत समय लगेगा। बड़ौदा, मैसूर, कोटा और कुछ दूसरे देशी राज्यों में, जिनके शासक हिन्दू धर्म के कट्टर अनुयायी हैं, शारदा बिल के अनुसार कार्य भी होने लगा है। बड़ौदा में विवाह की आयु नियत करने का क़ानून बने २० वर्ष हो गये। परन्तु ब्रिटिश भारत के अधिकारी ऐसे कानूनों का अब भी विरोध कर रहे हैं।