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हिन्दू विधवा

तीसरे विवाह के सम्बन्ध में उसका भाग्य अवश्य कठोर है परन्तु अन्य बातों में हिन्दू विधवा का जीवन इतना दुःखमय नहीं है जितना कि मिस मेयो ने उसे दर्शाया है। न्यू इँगलेंड अमरीका के एक सभ्य पुरुष प्रोफ़ेसर ग्रेट ने इसी विषय पर अत्यन्त निष्पक्ष होकर विचार किया है। वे कहते हैं[१]

"इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय विधाओं की स्थिति और जीवन-चर्य्या उनके व्यक्तित्व और जिस कुटुम्ब में रहने का उन्हें सौभाग्य या दुर्भाग्य प्राप्त हुआ है उनके अनुसार भिन्न भिन्न होती है। डुबोइस जैसे लेखकों से आप यह अनुमान करेंगे कि उस पर सदैव निर्दय अत्याचार होते रहते हैं और वह उदासी तथा अनिच्छा के साथ रात-दिन काम में पिसी रहती है। भगिनी निवेदिता और उनके समकक्ष विचार रखनेवालों के लेखों से आप यह अनुमान करेंगे कि हिन्दू विधवा के साथ सदैव स्नेह का बर्ताव किया जाता है और बड़े प्रेम से उसका पालन-पोषण होता है और वह संन्यासिनी हो जाती है तथा अपने दुःखमय जीवन को सत्कार्य्यों में लगा देती है। निःसन्देह अपने परिमित क्षेत्र में ये दोनों विचार सत्य हैं पर हमें इनमें से किसी को भी ज्यों का त्यों नहीं मान लेना चाहिए। निश्चय ही विधवा का स्वाभाविक जीवन दुःखमय है। और कठोर हिन्दू सिद्धान्तों के अनुसार उसे दुःखी जीवन व्यतीत भी करना चाहिए, क्योंकि विधवा के लिए प्रसन्नता की अपेक्षा उदासी ही की अधिक आवश्यकता है। और निःसन्देह जो विधवाएँ इस सिद्धान्त में विश्वास रखती हैं और स्वेच्छापूर्वक अपने जीवन को सर्वथा त्यागमय बना कर सेवा-कार्य्य में लग जाती हैं वे अन्त में अग्नि में तपाये सोने के समान चमकती हैं।......गृहपति की विधवा माता को केवलप्रभ और आदर का ही स्थान प्राप्त नहीं रहता बरन उसे शक्ति और अधिकार का स्थान भी प्राप्त रहता है। कम आयु की विधवाएँ निस्सन्देह ऐसे अधिकारों से वञ्चित रहती हैं साथ ही उन्हें इच्छा से हो या अनिच्छा से इतना ही काम भी करना पड़ता है। जो स्त्रियाँ सत्ती या संन्यासिनी बनने की इच्छा नहीं रखतीं उनके लिए भारतवर्ष में वैधव्य जीवन वास्तव में अत्यन्त कठिन है।

"प्रत्येक दृष्टिकोण से देखा जाय तो भारतीय गृह अत्यन्त संकुचित और परिमित प्रतीत होगा परन्तु इसके साथ ही यह पवित्र और प्रेममय स्थान भी हो सकता है। हिन्दू गृह ने ऐसी स्त्रियों की सृष्टि की है जो यह जानती हैं कि प्रेम कैसे किया जाता है, कष्ट सहन कैसे किया जाता है और अपने


  1. भारतवर्ष और उसके मत। जे॰ बी॰ ग्रेट-लिखित, हाटन मिलफिन, न्यूयार्क से १९१५ ई॰ में प्रकाशित; पृष्ठ १३०-१३१