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दुखी भारत

प्रेमीजनों की सेवा में भक्ति के साथ अपने आपको कैसे भुलाया जा सकता है। विधवाओं की इस श्रेणी की शक्तियाँ परिमित अवश्य हैं परन्तु वे एक विशेष प्रकार के उच्च सौन्दर्य से वञ्जित नहीं हैं। यह दूसरी बात है कि वे आधुनिक लड़ाका और मताधिकार माँगनेवाली महिलाओं से बिल्कुल विपरीत स्थिति में हैं।"

चौथे यदि हिन्दू विधवा माता हुई तो उसकी पूजा होती है। मिस्टर प्रेट कहते हैं[१] कि 'कदाचित् भारतवर्ष के समान सम्माननीय स्थान माता को संसार में कहीं भी प्राप्त नहीं है।'

"भगिनी निवेदिता लिखती हैं–'यदि कोई मनुष्य मर जाता है तो उसकी पत्नी उसके पुत्र की संरक्षिका होती है और जायदाद का प्रबन्ध करती है। और जब पुत्र वयस्क हो जाता है तब भी वह अपनी माता के जीवनकाल तक अपनी जायदाद का स्वतंत्र स्वामी नहीं हो सकता। यदि वह अपनी माता की अनुमति के विरुद्ध कभी भी कोई काम करता है तो समस्त संसार उसे धिक्कारता है। और लेन देन के सम्बन्ध में फ़्रांस की स्त्रियों की भाँति भारतवर्ष की महिलाएँ इतनी योग्य समझी जाती हैं कि ऋणग्रस्त जायदाद के लिए यह कहा जाता है कि इसके लिए एक विधवा के देख-रेख की आवश्यकता है।"

लाहौर के गवर्नमेंट कालेज के प्रथम प्रिन्सिपल डाक्टर जी॰ डब्ल्यू॰ लीटनर ने गत शताब्दी के अन्तिम भाग में पञ्जाब के जीवन का बहुत परिश्रम के साथ अध्ययन किया था। उन्होंने हिन्दुओं के उच्च वैवाहिक आदर्श और उनकी विधवाओं की स्थिति के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था[२]

"बेचारी विधवाओं की स्थिति समस्त संसार में बड़ी शोचनीय है और वे हम सबकी सहानुभूति की अधिकारिणी हैं। परन्तु भारतवर्ष में निम्नलिखित बातों से उनका दुःख यथासंभव कम हो जाता है:–

(१) मुसलमानों, सिखों, अधिकांश पहाड़ी जातियों और समस्त निम्न जातियों में विधवा-विवाह प्रचलित है। जाटों की विधवाओं को उत्तराधिकार की रक्षा के लिए अपने देवरों के साथ विवाह करना ही पड़ता है।


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३०
  2. पञ्जाब में प्राचीन शिक्षण-पद्धित का इतिहास, पृष्ठ १८०।