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हिन्दू विधवा

(२) जिन विधवाओं के बड़े बड़े लड़के होते हैं या जिनकी आयु इतनी होती है कि वे गृह-प्रबन्ध में राय दे सकें वे क्रियात्मक रूप से और अनेक अवस्था में तो निश्चय रूप से गृह में शासन करती हैं।

(३) इस प्रकार केवल उच्च और मध्यम श्रेणी की जातियों में विधवाओं की एक अल्प संख्या ऐसी रह जाती है जिसे पुनर्विवाह से वञ्चित रहना पड़ता है। परन्तु उनमें केवल उन्हीं की दशा शोचनीय है जो या तो निर्धन होती हैं या जिनके सम्बन्धी नहीं होते या होते हैं तो उनके साथ प्रेम का वर्ताव नहीं करते। पर ऐसा अवसर बहुत कम उपस्थित होता है।

(४) इनका भी दुःख निम्नलिखित बातों से कम हो जाता है–

(क) विवाह-बन्धन के पवित्र आदर्श से। स्वर्ग में पति-मिलन की आशा से। इस योग्य होने के लिए वे तप का जीवन व्यतीत करती हैं। जैसे चारपाई के बदले भूमि पर सोती हैं; इत्यादि। यही वह स्थिति है जिसमें धर्म उच्चमना हिन्दू विधवा के चरित्र को ऊँचा उठाता है और उसे दृढ़ बनाता है।

(ख) जो विधवाएँ अपने कार्य्यों से अपने मृतक पति के लिए आन्तरिक शोक प्रकट करती हैं उन्हें समाज में मिले यथेष्ट आदर से।

(ग) पति की मृत्यु के पश्चात् पिता के कुटुम्ब के जनों की सहानुभूति से, जहाँ वे प्रायः लौट जाती हैं।

(घ) पति की मृत्यु के तेरहवें दिन उनके लिए जीवन भर को जो उदार व्यवस्था कर दी जाती है उससे। यह नियम चाहे जिस प्रकार हो उनको चिन्ताओं से मुक्त कर देता है। और यदि कोई सन्तान हो तो उसकी शिक्षा आदि का प्रबन्ध करने की उन्हें आज्ञा दे देता है।

यह वर्णन बिल्कुल सत्य है। जब मैं वकालत करता था तब वकील की हैसियत से और व्यक्तिगत रूप से भी मुझे ऐसी अनेक बातों पर विचार करने का अवसर पड़ा है। इस तरह अपने निजी अनुभव से मैं इसे ऐसा ही समझता भी हूँ। मिस मेयो का निम्नलिखित वर्णन पैशाचिक अतिशयोक्तियों से भरा पड़ा है[१]:––

"अपने पति के घर में रहनेवाली स्त्री, उसके मृत्यु के पश्चात् विधवा हो जाने पर यद्यपि अपनी रक्षा का हिन्दू नियम अनुसार दावा नहीं कर


  1. मदर इंडिया, पृष्ठ ८४