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दुखी भारत

उच्च जाति के हो सकते हैं। पर उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करने में वे अपना ज़रा भी अनादर नहीं समझते। बल्कि उनका यह कार्य्य सर्वथा सम्माननीय समझा जाता है। वह और उसके समान अन्य स्त्रियाँ मिलकर अपनी एक खास जाति की रचना करती हैं। और 'देवदासियाँ' या 'देवों की वेश्याओं' के नाम से पुकारी जाती हैं। मन्दिर की सजावट उनके बिना सूनी समझी जाती है।"

हम यह नहीं समझते कि देवदासी की प्रथा का विषय मिस मेयो की निजी खोज है। हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि उसने इसी प्रकार के विषयों की खोज की है। यहाँ हम अपने पाठकों का ध्यान सर जेम्स फ्रे़जर-कृत 'गोल्डेन बाऊ' (सुनहली डाली) की ओर आकर्षित कर देना चाहते हैं*[१]। फ्रे़जर के वर्णन से मिस मेयो की सारी बातें सिद्ध नहीं होतीं! उनकी पुस्तक में हम पढ़ते हैं:–

"भारतवर्ष में तामिल मन्दिरों की सेवा के लिए जो नाचनेवाली बालिकाएँ भेंट की जाती हैं वे अपने आपको देवदासी अर्थात् देवताओं की सेविका कहती हैं परन्तु साधारण जनता में वे केवल वेश्या के नाम से प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में जितने सुविख्यात तामिल मन्दिर हैं प्रायः उन सबमें इन धार्मिक स्त्रियों की एक सेना पाई जाती है। उनका मन्दिर-सम्बन्धी कर्तव्य यह है कि वे मन्दिर में प्रातः, सायं दो बार नाचें, मूर्ति पर चवँर चलावें, जब जलूस निकले तो मूर्ति के आगे आगे नाचती गाती हुई चलें और पवित्र प्रकाश लेकर चलें। इस प्रकाश को कुम्बरती कहते हैं। जिन माताओं के सन्तान होनेवाली होती है, वे कुशलपूर्वक उसे जन्म देने के लिए प्रायः यह संकल्प कर लेती हैं कि यदि वह सन्तान कन्या होगी तो उसे वे देवताओं की भेंट कर देंगी। मदरास प्रान्त के एक छोटे से नगर त्रिकुली कुन्द्रम के जुलाहों में यह प्रथा है कि वे अपनी ज्येष्ठ कन्या को देवताओं के भेंट कर देते हैं। इस प्रकार जो कन्यायें देवार्पण की जाती हैं वे अपना कार्य्यारम्भ करने से पूर्व या तो देवता की मूर्ति के साथ या कटार के साथ विवाह करती हैं। इससे यह पता चलता है कि वे सदैव नहीं तो कभी कभी देवता की पत्नियाँ समझी जाती हैं।

"दक्षिण भारत में चारों तरफ़ फैली हुई तामिल जुलाहों की कैकोलन नाम की एक बड़ी जाति में यह प्रथा है कि प्रत्येक कुटुम्ब की कम से कम एक


  1. *पहला भाग (मैकमिलन, १९१४) पृष्ठ ६१-६५