पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२१९
देवदासी

कन्या मन्दिर की सेवा के लिए अनिवार्य्य रूप से भेंट की जाती है। कोयम्बटूर में ऐसी बालिकाओं के मन्दिर-प्रवेश के अवसर पर जो धार्मिक कृत्य किये जाते हैं उनमें 'एक प्रकार का विवाह-संस्कार' भी सम्मिलित रहता है।

"ट्रावनकोर के मन्दिरों में ऐसी जो कुमारियाँ नियुक्त रहती हैं उन्हें देवदासी कहते हैं।

"उसके समर्पण और जीवन-चर्य्या का निम्नलिखित वर्णन उल्लेखनीय है; क्योंकि यह उसके जीवन के ओछे कृत्यों की उपेक्षा करते हुए भी यह प्रकट करता है कि उसका देवता के साथ विवाह क्यों किया जाता है। देवदासियों के विवाह का मूल तात्पर्य्य यह था कि देवमूर्ति के साथ विवाह हो जाने पर वे अपने जीवन का शेष सम्पूर्ण भाग साधारण गृहस्थ जीवन को त्याग कर देवता की सेवा में लगा दें। आरम्भ में हिन्दू मन्दिरों में देवदासियों की सम्भवतः जो स्थिति रही होगी उसकी तुलना अस्पताल की दाइयों या ईसाइयों के स्त्री-मठों की बहनों के साथ भली भाँति की जा सकती है। समर्पण-काल की धार्मिक क्रियाओं––दासी के देवमूर्ति के साथ विवाह की रीतियों––में ऐसी बातें अब भी मौजूद हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि वर्तमान समय में उनका जीवन जैसा कलङ्कमय है, पहले उसका बिल्कुल उलटा था। जिस बालिका का इस प्रकार विवाह किया जाता है उसकी आयु प्रायः ६ से ८ वर्ष के भीतर होती है। स्थानीय मन्दिर में जो देवता होता है वही दूल्हा बनता है। उस समय से वह उस देवता की पत्नी बन जाती है। और यह समझा जाता है कि उसने नियमानुकूल और गम्भीरतापूर्वक अपना शेष जीवन उस देवता की सेवा के लिए वैसे ही समर्पित कर दिया है जैसे पवित्र वैवाहिक बन्धन से बँधी कोई पति-भक्ता नारी अपना शेष जीवन अपने स्वामी की सेवा में लगा देती है। उन समस्त गुणों से युक्त देवदासी का जीवन निश्चय ही अत्यन्त पवित्र और कलङ्क-विहीन जीवन था। अब भी मन्दिर से ही उसका पालन-पोषण होता है। मन्दिर के उत्सवों के अवसर पर वह व्रत-उपवास करती है। अपामरागम समारोह से सम्बन्ध रखनेवाला सात दिन का उपवास इसका एक उदाहरण है। इस उपवास के समय में उसे कठिन संयम का पालन करना पड़ता है। वह केवल एक बार भोजन करती है और वह भी मन्दिर के भीतर। तात्पर्य्य यह कि कम से कम इस सात दिन के समय के लिए उसे अपना जीवन ठीक उसी प्रकार बिताना पड़ता है जैसा कि उसे मृत्युपर्य्यन्त बिताने की आज्ञा होती है। उसके कुछ दैनिक कार्य बड़े मनोरञ्जक प्रतीत होते हैं। वह सन्ध्या के समय प्रति दिन की आरती में सम्मिलित होती है। देवता का स्तुति-गान करती है, उसके सम्मुख नाचती है और जब उसकी सवारी निकलती है तो प्रकाश लेकर