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दुखी भारत

की है वह हमें पाश्चात्य देशों के धर्माचरण के साथ भारतवर्ष के धर्माचरण की तुलना करने के लिए आमन्त्रित करती है। यह कार्य्य कितना ही अप्रिय क्यों न हो, हमें करना ही पड़ेगा। भारतवर्ष में विषय-भोग और तत्सम्बन्धी पापाचार के सम्बन्ध में मिस मेयो ने जो कुछ लिखा है उसकी सत्यता की जाँच करने का एक मात्र उपाय यही है कि इस देश के स्त्री-पुरुष-सम्बन्धी धर्माचरण और रवाजों को पाश्चात्य देशों की इन्हीं बातों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय। परन्तु हम किंवदन्तियों के आधार पर अपने वक्तव्य न प्रकाशित करेंगे और इस कार्य को पूरा करने का भार योरप के वैज्ञानिक लेखकों तथा योग्य निरीक्षकों पर छोड़ देंगे।

यह कार्य्य आरम्भ करने से पहले हम यह स्वीकार किये लेते हैं, जैसा कि एक पिछले अध्याय में स्वीकार भी कर चुके हैं, कि भारतवर्ष में बाल विवाह एक ऐसी बात अवश्य है जो विषय-भोग की प्रवृत्ति को उत्तेजित करती है और शारीरिक शक्ति को क्षीण करती है। मिस मेयो ने जो कुछ कहा है वह एक भयङ्कर और द्वेष-पूर्ण अतिशयोक्ति है। इसकी परीक्षा हम पिछले अध्याय में कर आये हैं। परन्तु, हाँ, इस कुप्रथा की उपस्थिति को हम अस्वीकार नहीं कर सकते।

इस एक कारण के अतिरिक्त हमें भारतवर्ष की रवाजों और स्थितियों में कोई ऐसी बात देखने को नहीं मिलती जो पाश्चात्य देशों की रवाजों और स्थितियों के समान देश के सामाजिक वायुमंडल को विषय-वासना से घटा-टोप कर देनेवाली हो। वास्तव में जूता दूसरे ही पैर में है। आधुनिक औद्योगिक और निवास-सम्बन्धी दशाएँ, इनसे उत्पन्न सस्ती उत्तेजना की लिप्सा, बड़े बड़े नगर, व्यापारिक ढङ्ग पर दुर्वासना-सम्बन्धी समस्त संघ–ये सब बातें पाश्चात्य देशों में इतना कामोद्दीपन उत्पन्न कर देती हैं कि भारतवर्ष में उनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।

पाश्चात्य देशों में विवाह के पूर्व और विवाह के अतिरिक्त विषय-भोग करने के लिए जैसी सुविधाएँ हैं वैसी भारतवर्ष में मुश्किल से मिलेंगी। पाश्चात्य देशों में बाल-विवाह भले ही अज्ञात हो पर बाल्यावस्था में ही उन्हें स्त्री-पुरुष के सम्भोग-सम्बन्धी समस्त बातों का अनुभव हो जाता है। भारत-