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दुखी भारत

पास आने का कारण मुझसे किसी न किसी प्रकार की सहायता की उनकी अनिवार्य आवश्यकता थी। वे उस आवश्यकता को अनुभव न करती तो मेरे पास कदापि न पातीं। मेरे पास जहाँ एक लड़की आई वहाँ बहुत-सी ऐसी भी हो सकती हैं जो नहीं आई। वे इसलिए नहीं आई कि उन्हें सहायता की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। इसलिए उन्होंने अपनी ही राय से काम लिया।

"दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि वे ५०० बालिकाएँ जो दो वर्ष से कुछ कम के समय में मेरे पास आई, एक छोटे समूह में समाज के सब वर्गो को उपस्थित करती थीं। ...... परन्तु एक बहुत बड़ा समूह...... यह उपाय नहीं जानता था। इससे मेरे पास आया भी नहीं। मेरी निजी सम्मति यह है कि यदि एक लड़की मेरे पास सहायता के लिए आती है क्योंकि वह गर्भवती है, या रोगिणी है और सुख की खोज में है तो बहुत सी ऐसी रह जाती हैं जो नहीं पाती क्योंकि वे सम्भोग के परिणामों से या तो बिल्कुल बच जाती हैं था ऐसी परिस्थिति में होती हैं कि प्रत्येक बात की स्वयं व्यवस्था कर सकती हैं। उदाहरण के लिए सैकड़ों, गर्भपात करनेवाले चिकित्सकों का सहारा लेती हैं। मेरा यह अनुमान नहीं है। मैं इस बात को जानता हूँ।"

जज महोदय अपने पाठकों को सावधान करते हैं कि वे अतिशयोक्ति नहीं कर रहे हैं। और जिन बातों का उन्होंने वर्णन किया है वे डेनवर के लिए आश्चर्यजनक नहीं हैं।

"मैं इन अनुमानों की जड़ तक नहीं जाना चाहता। जो कम से कम अङ्क प्राप्त हैं वहीं दिल दहला देनेवाले हैं। गत वर्ष (१९२४ ई॰) मुझे १०० अनुचित सम्बन्ध से गर्भवती बालिकाओं के लिए व्यवस्था करनी पड़ी। इनमें से अधिकांश माताओं और बच्चों की देख-रेख भी करनी पड़ी। अधिकांश दशाओं में बच्चों के पालन-पोषण का भार भी मुझी को लेना पड़ा। इनमें से प्रत्येक बालिका अपनी चेष्टाओं से यह कहती थी कि क्या वह मेरे पास आये और शिशु को जन्म दे जाय या गर्भपाती के पास जाकर गर्भ गिरवा दे।"

"यह केवल हाई स्कूल में पढ़ने के योग्य प्रायुवाली बालिकाओं का किस्सा है। कुछ स्कूल में पढ़ती हैं कुछ नहीं, पढ़तीं। जिस नगर की यह बात है उसकी जन-संख्या ३०,००,००० है।"